- महाभारत विराट पर्व के गोहरण पर्व के अंतर्गत अध्याय 67 में अर्जुन का विजयी होकर उत्तरकुमार के साथ राजधानी को प्रस्थान करने का वर्णन हुआ है[1]-
विषय सूची
कौररव सैनिकों द्वारा अर्जुन से याँचना
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! इस प्रकार बैल सी विशाल आँखों वाले अर्जुन उस समय युद्ध में कौरवों को जीतकर विराट का वह महान गोधन लौटा लाये। जब कौरव दल के लोग चले गये या इधर उधर सब दिशाओं में भाग गये, उस समय बहुत से कौरव सैनिक जो घने जंगल में छिपे हुए थे, वहाँ से निकल कर डरते-डरते अर्जुन के पास आये। उनके मन में भय समा गया था। वे भूखे प्यासे और थके माँदे थे। परदेश मे होने के कारण उनके हृदय की व्याकुलता और बढ़ गयी थी। वे उस समय केश खोले और हाथ जोड़े हुए खड़े दिखायी दिये। वे सब-के-सब अर्जुन को प्रणाम करके घबराये हुए बोले- ‘कुन्ती नन्दन! हम आपकी क्या सेवा करें? अर्जुन! हम आपसे हृदय के भीतर छिपे हुए अपने प्राणों की रक्षा के लिये याचना करते हैं। हम लोग आपके दास और अनाथ हैं; अतः आपको सदा हमारी रक्षा करनी चाहिये’।
अर्जुन का संवाद
अर्जुन ने कहा- सैनिकों! जो लोग अनाथ, दुखी, दीन, दुर्बल, पराजित, अस्त्र शस्त्रों को नीचे डाल देने वाले, प्राणों से निराश एवं हाथ जोड़कर शरणागत होते हैं, उन सबको मैं नहीं मारता हूँ। तुम्हारा भला हो। तुम कुशल पूर्वक घर लौट जाओ। तुम्हें मेरी ओर से किसी प्रकार का भय नहीं होना चाहिये। मैं संकट में पड़े हुए मनुष्यों को नहीं मारना चाहता। इस बात के लिये मैं तुम्हें पूरा - पूरा विश्वास दिलाता हूँ।
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! अर्जुन की वह अभय दान युक्त वाणी सुनकर वहाँ आये हुए समस्त योद्धाओं ने उन्हें आयु, कीर्ति तथा सुयश बढ़ाने वाले आशीर्वाद देते हुए उनका अभिनन्दन किया। उस समय अर्जुन शत्रुओं को छोड़कर- उन्हें जीवन दान दे, मद की धारा बहाने वाले हाथी की भाँति मस्ती की चाल से विराट नगर की ओर लौटे जा रहे थे। कौरवों को उन पर आक्रमण करने का साहस नहीं हुआ। कौरवों की सेना मेघों की घटा सी उमड़ आयी थी; किंतु शत्रुहन्ता पार्थ ने उसे मार भगाया। इस प्रकार शत्रु सेना को परास्त करके अर्जुन ने उत्तर को पुनः हृदय से लगाकर कहा- ‘तात! तुम्हारे पिता के समीप समस्त पाण्डव निवास करते हैं, यह बात अब तक तुम्हीं को विदित हुई है; अतः तुम नगर में प्रवेश करके पाण्डवों की प्रशंसा न करना, नहीं तो मत्स्यराज डरकर प्राण त्याग देंगे।
अर्जुन एवं उत्तर का संवाद
‘राजधानी में प्रवेश करके पिता के समीप जाने पर तुम यही कहना कि मैंने कौरवों की उस विशाल सेना पर विजय पायी है और मैंने ही शत्रुओं से अपनी गौओं को जीता है। सारांश यह कि युद्ध में जो कुछ हुआ है, वह सब तुम अपना ही किया हुआ पराक्रम बताना’।
उत्तर ने कहा- सव्यसाचिन! आपने जो पराक्रम किया है, वह देसरे के लिये असम्भव है। वैसा अदभुत कर्म करने की मुझ में शक्ति नहीं है; तथापि जब तक आप मुझे आज्ञा न देंगे, तब तक पिता जी के निकट आपके विषय में मैं कुछ नहीं कहूँगा।
अर्जुन का विलीन होना
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! विजयशील अर्जुन पूर्वोक्त रूप से शत्रु सेना को परास्त करके कौरवों के हाथ से सारा गोधन छीन लेने के बाद पुनः श्मशान भूमि में उसी शमी वृक्ष के समीप आकर खड़े हुए। उस समय उनके सभी अंग बाणों के आघात से क्षत विक्षत हो रहे थे। तदन्नतर वह अग्नि के समान तेजस्वी महावानर ध्वज निवासी भूतगणों के साथ आकाश में उड़ गया। उसी प्रकार ध्वज सहित वह दैवी माया भी विलीन हो गयी और अर्जुन के रथ में फिर वही सिंह ध्वज लगा दिया गया। कुरुकुल शिरोमणि पाण्डवों के युद्ध क्षमता वर्धक आयुधों, तरकसों और बाणों को फिर पूर्वत शमी वृक्ष पर रखकर मत्स्य कुमार उत्तर महात्मा अर्जुन को सारथि बना उनके साथ प्रसन्नतापूर्वक नगर को चला। शत्रुहनता कुन्ती पुत्र ने शत्रुओं को मारकर महान वीरोचित पराक्रम करके पुनः पूर्ववत सिर पर वेणी धारण कर ली और उत्तर के घोड़ों की रास सँभाली। इस प्रकार बृहन्नला का रूप धारण कर महामना अर्जुन ने सारथि के रूप में प्रसन्नतापूर्वक राजधानी में प्रवेश किया।
अर्जुन का विजयी होकर उत्तरकुमार के साथ राजधानी को प्रस्थान
वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! तदनन्तर कौरव युद्ध से भागकर विवशता पूर्वक लौट गये। उन सबने दीन भाव से उस समय हस्तिनापुर की ओर प्रस्थान किश। इधर अर्जुन ने नगर में रास्ते में आकर उत्तर से कहा।[2]
‘महाबाहु राजकुमार! देख लो, तुम्हारे सब गोधन ग्वालों के साथ यहाँ आ गये हैं। वीर! अब हम लोग घोड़ों को पानी पिला और नहलाकर उनकी थकावट दूर हो जाने के बाद अपरान्हकाल में विराट नगर चलेंगे। ‘तुम्हारे द्वारा भेजे हुए ये ग्वाले तुरंत नगर में विजय का पिंय संवाद सुनाने के लिये जायँ और यह घोषित कर दें कि राजकुमार उत्तर की जीत हुई है’।
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तब अर्जुन के कथनानुसार उत्तर ने बड़ी उतावली के साथ दूतों को आज्ञा दी- ‘जाओ और सूचित करो कि महाराज की विजय हुई है। शत्रु भाग गये और गौएँ जीतकर वापस लायी गयी हैं’। इस प्रकार भरतकुल और मत्स्यकुल के उन दोनों वीरों ने आपस में सलाह करके पूर्वोक्त शमी वृक्ष के समीप जा पहले के उतारे हुए अपने अलंकार आदि शरीर पर धारण कर लिये थे और उनके रखने के पात्र भी रथ पर चढ़ा लिये थे। इस तरह शत्रुओं की सम्पूर्ण सेना को पराजित करके कौरवों से सारा गोधन छीनकर विराट कुमार वीर उत्तर बृहन्नला सारथि के साथ प्रसन्नतापूर्वक नगर की ओर प्रस्थित हुआ।[3]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महाभारत विराट पर्व अध्याय 67 श्लोक 1-9
- ↑ महाभारत विराट पर्व अध्याय 67 श्लोक 10-17
- ↑ महाभारत विराट पर्व अध्याय 67 श्लोक 18-23
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