पांडवों का श्मशान में शमी वृक्ष पर अपने अस्त्र-शस्त्र रखना

महाभारत विराट पर्व के पांडवप्रवेश पर्व के अंतर्गत अध्याय 3 में पांडवों का श्मशान में शमी वृक्ष पर अपने अस्त्र-शस्त्र रखने का वर्णन हुआ है। यहाँ वैशम्पायन जी ने जनमेजय से पांडवों का श्मशान में शमी वृक्ष पर अपने अस्त्र-शस्त्र रखने की कथा कही है।[1]

वैशम्पायन द्वारा शमी वृक्ष पर अस्त्र-शस्त्र रखने का वर्णन

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर वे वीर पाण्डव तलवार बाँधे, पीठ पर तूणीर कसे, गोह के चमड़े से बने हुए अंगुलि (दस्ताने) पहने पैदल चलते चलते यमुना नदी के समीप जा पहुँचे। इसके बाद वे यमुना के दक्षिण किनारे पर पैदल ही चलने लगे। उस समय उनके मन में यह अभिलाषा जाग उठी थी कि अब हम वनवास के कष्ट से मुक्त हो अपना राज्य प्राप्त कर लेंगे। उन सबने धनुष ले रखे थे। वे महान धनुर्धर और महापराक्रमी वीर पर्वतों और वनों के दुर्गम प्रदेशों में डेरा डालते और हिंसक पशुओं को मारते हुए यात्रा कर रहे थे। आगे जाकर वे दशार्ण से उत्तर और पाञ्चाल से दक्षिण एवं यकृल्लोम तथा शूरसेन देशों के बीच सं होकर यात्रा करने लगे। उन्होंने हाथों में धनुष धारण कर रक्खे थे। उनकी कमर में तलवारें बँधी थीं। उनके शरीर मलिन एवं उदास थे। उन सबकी दाढ़ी-मूछें बढ़ गयीं थी। किसी के पूछने पर वे अपने को मत्स्य देश में निवास करने का इच्छूक बताते थे। इस प्रकार उन्होंने वन से निकलकर मत्स्यराष्ट्र के जनपद में प्रवेश किया। जनपद में आने पर द्रौपदी ने राजा युधिष्ठिर से कहा- ‘महाराज! देखिये, यहाँ अनेक प्रकार के खेत और उनमें पहुँचने के लिये बहुत-सी पगडंडियाँ दिखाई देती हैं। जान पड़ता है, विराट की राजधानी अभी दूर होगी। मुझे बड़ी थकावट हो रही है, अतः हम एक रात और यहीं रहें। युधिष्ठिर बोले- धनंजय! तुम द्रौपदी को कंधे पर उठाकर ले चलो। भारत! इस वन से निकलकर अब हम लोग राजधानी में ही निवास करेंगे। वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! तब गजराज के समान पराक्रमी अर्जुन ने तुरंत ही द्रौपदी को उठा लिया और नगर के निकट पहुँचकर उन्हें कंधे से उतारा। राजधानी के समीप पहुँचकर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर ने अर्जुन से कहा-‘भैया! हम अपने अस्त्र-शस्त्र कहाँ रखकर नगर में प्रवेश करें? ‘तात! यदि अपने आयुधो के साथ हम इस नगर में प्रवेश करेंगे, तो निःसंदेह यहाँ के निवासियों को उद्वेग (भय) में डाल देंगे। ‘तुम्हारा गाण्डीव धनुष तो बहुत बड़ा और बहुत भारी है। संसार के सब लोगों में उसकी प्रसिद्धि है। ऐसी दशा में यदि हम अस्त्र-शस्त्र लेकर नगर में चलेंगे, तो वहाँ सब लोग हमें शीघ्र ही पहचान लेंगे। इसमें संशय नहीं है। ‘यदि हममें से एक भी पहचान लिया गया, तो हमें दुबारा बारह वर्षों के लिये वन में प्रवेश करना पड़ेगा; क्योंकि हमने ऐसी ही प्रतिज्ञा कर रक्खी है’। अर्जुन ने कहा- राजन! श्मशानभूमि के समीप एक टीले पर यह शमी का बहुत बड़ा सघन वृक्ष है। इसकी शाखाएँ बड़ी भयानक हैं, इससे इसपर चढ़ना कठिन है। पाण्डवों! मेरा विश्वास है कि यहाँ कोई ऐसा मनुष्य नहीं है, जो हमें अस्त्र-शस्त्रों को यहाँ रखते समय देचा सके।


यह वृक्ष रास्ते से बहुत दूर जंगल में है। इसके आस-पास हिंसक जीव और सर्प आदि रहते हैं। विशेषतः यह दुर्गम श्मशानभूमि के निकट है; [2]इसलिये इसी शमी-वृक्ष पर हम अपने अस्त्र-शस्त्र रखकर नगर में चलें। भारत! ऐसा करके हम यहाँ जैसा सुयोग होगा, उसके अनुसार विचरण करेंगे।

पांडवों द्वारा अस्त्र-शस्त्र रखने का प्रयत्न

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! धर्मराज युधिष्ठिर से ऐसा कहकर अर्जुन वहाँ अस्त्र-शस्त्रों को रखने के प्रयत्न में लग गये। कुरुश्रेष्ठ अर्जुन ने जिस धनुष के द्वारा एकमात्र रथ का आश्रय ले सम्पूर्ण देवताओं और मनुष्यों पर विजय पायी थी तथा अन्यान्य अनेक समृद्धशाली जनपदों पर विजय पताका फहरायी थी, जिस धनुष ने दिव्य बल से सम्पन्न असुरों आदि की सेनाओं का भी संहार किया था, जिसकी टंकारध्वनि बहुत दूर तक फैलती है, उस उदार तथा अत्यन्त भयंकर गाण्डीव धनुष की प्रत्यंचा अर्जुन ने उतार डाली। परंतप वीर युधिष्ठिर ने जिके द्वारा समूचे कुरुक्षेत्र की रक्षा की थी, उस धनुष की अक्षय डोरी को उन्होंने भी उतार दिया। भीमसेन ने जिसके द्वारा पाञ्चाल वीरों पर विजय पायी थी, दिग्विजय के समय उन्होंने अकेले ही जिसकी सहायता से बहुतेरे शत्रुओं का परास्त किया था, वज्र के फटने और पर्वत के विदीर्ण होने के समान जिसका भयंकर टंकार सुनकर कितने ही शत्रु युद्ध छोड़कर भाग खड़े हुए तथा जिसके सहयोग से उन्होंने सिन्धुराज जयद्रथ को परास्त किया था, अपने उसी धनुष की प्रत्यन्चा को भीमसेन ने भी उतार दिया। जिनका मुख ताँबे के समान लाल था, जो बहुत कम बोलते थे, उन महाबाहु माद्रीनन्दन नकुल ने दिग्विजय के समय जिस धनुष की सहायता से पश्चिम दिशा पर विजय प्राप्त की थी, समूचे कुरुकुल में जिनके समान दूसरा कोई रूपवान न होने के कारण जिन्हें नकुल कहा जाता था, जो युद्ध में शत्रुओं को रुलाने वाले शूरवीर थे; उन वीरवर नकुल ने भी अपने पूर्वोक्त धनुष की प्रत्यन्चा उतार दी। शास्त्रानुकूल तथा उदार आचार-विचार वाले शक्तिशाली वीर सहदेव ने भी जिसकी सहायता से दक्षिण दिशा को जीता था, उस धनुष की डोरी उतार दी। धनुषों के साथ-साथ पाण्डवों ने बड़े-बड़े एवं चमकीले खड्ग, बहुमूल्य तूणीर, छुरे के समान तीखी धार वाले क्षुरधार और विपाठ नामक बाण भी रख दिये। वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! तदनन्तर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर ने नकुल को आज्ञा दी- ‘वीर! तुम इस शमी पर चढ़कर ये धनुष आदि अस्त्र-शस्त्र रख दो’। तब नकुल ने उस वृक्ष पर चढ़कर उसके खोखलों में वे धनुषआदि आयुध स्वयं अपने हाथ से रक्खे। उसके जो खोखले थे, वे नकुल को दिव्यरूप जान पड़े।[3]

क्योंकि उन्होंने देखा, वहाँ मेघ तिरछी वृष्टि करता है (जिससे खोखले में पानी नहीं भरता)। उन्हीं में उन आयुधोें को रखकर मजबूत रस्स्यिों से उन्हें अच्छी तरह बाँध दिया। इसके बाद पाण्डवों ने एक मृतक का शव लाकर उस वृक्ष की शाखा से बाँध दिया। उसे बाँधने का उद्देश्य यह था कि इसकी दुर्गन्ध नाक में पड़ते ही लोग समझ लेंगे कि इसमें सड़ी लाश बँधी है; अतः दूर से ही वे इस शमीवृक्ष को त्याग देंगे। परंतप पाण्डव इस प्रकार उस शमी वृक्ष शव बाँधकर उस वन में गाय चराने वाले ग्वालों और भेड़ पालने वाले गड़रियों से शव बाँधने का कारण बताते हुए कहते हैं- ‘यह एक सौ अस्सी वर्ष की हमारी माता है। हमारे कुल का यह धर्म है, इसलिये ऐसा किया है। हमारे पूर्वज भी ऐसा ही करते[4] आये हैं। इस प्रकार शत्रुओं का संहार करने वाले वे कुन्तीपुत्र नगर के निकट आ पहुँचे। तब युधिष्ठिर ने क्रमशः पाँचों भाइयों के जय, जयन्त, विजय, जयत्सेन और जयद्वल- ये गुप्त नाम रक्खे। तत्पश्चात् उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार तेरहवें वर्ष का अज्ञातवास पूर्ण करने के लिये मत्स्यराष्ट्र के उस विशाल नबर में प्रवेश किया।[5]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत विराट पर्व अध्याय 4 श्लोक 1-16
  2. अतः यहाँ तक किसी के आने या वृक्ष पर चढ़ने की सम्भावना नहीं है;
  3. महाभारत विराट पर्व अध्याय 5 श्लोक 15-29
  4. पाडंव लोग शव बँधो हुई शाखा की ओर अगुँली से सकेत करके कहते थे- 'यह हमारी माता है।' वे अपने आयुर्धों की रक्षा करने के कारण शमी को ही अपनी माता मानते थे और उसी की और उनका वास्तविक संकेत था। शव-बंधन के व्याज से वे अस्त्र सरंक्षण को ही पूर्वजों द्वारा आचरित कुल धर्म घोषित करते थे।
  5. महाभारत विराट पर्व अध्याय 5 श्लोक 30-36

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