अर्जुन द्वारा कौरव सेना का संहार

महाभारत विराट पर्व के गोहरण पर्व के अंतर्गत अध्याय 55 में अर्जुन द्वारा कौरव सेना का संहार का वर्णन हुआ है[1]-

दुर्योधन का युद्ध में आगे आना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! राधा नन्दन कर्ण के भाग जाने पर दुर्योधन आदि कौरव योद्धा अपनी अपनी सेना के साथ धीरे - धीरे पाण्डु नन्दन अर्जुन की ओर बढ़ आये। तब जैसे वेला ( तट भूमि ) महासागर के वेग को रोक लेती है, उसी प्रकार अर्जुन ने व्यूहरचना पूर्वक बाण वर्षा के साथ आती हुई अनेक भागों में विभक्त कौरव सेना के बढ़ाव को रोक दिया। तदनन्तर श्वेत घोड़ों वाले श्रेष्ठ रथ परद आरूढ़ कुन्ती नन्दन अर्जुन ने हँसकर दिव्यास्त्र प्रकट करते हुए उस सेना का सामना किया। जैसे सूर्य देव अपनी अनन्त किरणों द्वारा समूची पृथ्वी को आच्छादित कर लेते हैं, उसी प्रकार अर्जुन ने गाण्डीव धनुष से छूटे हुए असंख्य बाणों द्वारा दसों दिशाओं को ढँक दिया। वहाँ रथों, घोड़ों, हाथियों तथा उनके सवारों के अंगों और कवचों में दो अंगुल भी ऐसा स्थान नहीं बचा था, जो अर्जुन के तीखे बाणों से बिंध न गया हो।

अर्जुन की प्रशंसा

अर्जुन के दिव्यास्त्रों का प्रयोग, घोड़ों की शिक्षा, रथ संचालन की कला में उत्तर का कौशल तथा पार्थ के अस्त्र चलाने का क्रम- इन सबके कारण तथा उनका पराक्रम और अत्यन्त फुर्ती देखकर शत्रु भी उनकी प्रशंसा करने लगे। अर्जुन समस्त प्रजा का संहार करने वाली प्रलय कालीन अग्नि के समान शत्रुओं को भस्म कर रहे थे। वे मानो जलती आग हो रहे थे। शत्रु उनकी ओर आँख उठाकर देख भी नहीं पाते थे। अर्जुन के बाणों से आच्छादित हुई कौरवों की सेना इस प्रकार सुशोभित हुई, मानो पर्वत के निकट नवीन मेघों की घटा सूर्य की किरणों से व्याप्त हो गयी हो। भारत! उस समय कुन्ती पुत्र अर्जुन के बाणों से घायल हो लहू लुहान हुए कौरव सैनिक बहुतेरे लाल फूलों से आच्छादित अशोक वन के समान शोभा पा रहे थे। अर्जुन के बाणों से छिन्न-भिन्न हो हार से टूटकर बिखरे हुए स्वर्ण चम्पा के सूखे फूल, छत्र और पताकाओं आदि को वायु कुछ देर तक आकाश में ही धारण किये रहती थी।[2] अर्जुन ने जिनके जुए काट दिये थे, वे शत्रु दल के घोड़े अपनी सेना की घबराहट से स्वयं भी व्यग्र हो उठे और जुए का एक एक टुकड़ा अपने साथ लिये सब ओर भागने लगे।

अर्जुन द्वारा कौरव सेना का संहार

अब अर्जुन युद्ध भूमि में गजराजों के कान? कक्ष, दाँत, निचले ओठ तथा अन्य मर्म स्थानों में बाण मारकर उन्हें धराशायी करने लगे। एक ही क्षण में प्राण हीन हुए कौरव सेना के आगे चलने वाले गजराजों की लाशों से वहाँ की भूमि पट गयी एवं मेघों की घटा से आचछादित आकाश की भाँति प्रतीत होने लगी। महाराज! जैसे प्रलयकाल में लपलपाती लपटों के साथ आगे बढ़ने वाली संवर्तकाग्नि सम्पूर्ण चराचर जगत को भस्म कर डालती है, उसी प्रकार कुन्ती नन्दन अर्जुन उस समर भूमि में शत्रुओं को अपनी बाणाग्नि से दग्ध करने लगे। तदनन्तर शत्रुओं का मान मर्दन करने वाले बलवान अर्जुन ने अपने सम्पूर्ण अस्त्र शस्त्रों के तेज से, धनुष की टंकार से, ध्वजा में निवास करने वाले मानवेतर भूतों के भयंकर कोलाहल से, अत्यन्त भैरव गर्जना करने वाले वानर से तथा भीषण नाद फैलाने वाले शंख से भी दुर्योधन की उस सेना में भारी भय उत्पन्न कर दिया। शत्रुओं की रथ शक्ति को तो अर्जुन पहले ही धरती पर सुला चुके थे। फिर असमर्थों का वध करना अनुचित साहस मानकर वे एक बार वहाँ से हट गये, परंतु[3]फिर उनके पास आ गये। अर्जुन के धनुष से छूटे हुए अत्यन्त तीखी धार वाले बाण समूह मानो रक्त पीने वाले आकाश चारी पक्षी थेद्व उनके द्वारा उन्होंने सम्पूर्ण आकाश को ढँक दिया। राजन! जैसे प्रचण्ड तेज वाले सूर्य देव की किरणें एक पात्र में नहीं अँट सकती, उसी प्रकार उस समय सम्पूर्ण दिशाओं में फैले हुए अर्जुन के असंख्य बाण आकाश में समा नीं पाते थे। शत्रु सैनिक अर्जुन का रथ निकट आने पर उसे एक ही बार पहचान पाते थे; दुबारा इसके लिये उन्हें अवसर नहीं मिलता था; क्योंकि पास आते ही अर्जुन उन्हें घोड़ों सहित इस लोक से परलोक भेज देते थे। अर्जुन के वे बाण जिस प्रकार शत्रुओं के शरीर में अटकते नहीं थे, उन्हें छेदकर पार निकल जाते थे, उसी प्रकार उनका रथ भी उस समय शत्रु सेनाओं में रुकता नहीं था; उसको चीरता हुआ आगे बढ़ जाता था। जैसे अनन्त फणों वाले नागराज शेष महासागर में क्रीड़ा करते हुए उसे मथ डालते हैं, उसी प्रकार अर्जुन ने अनायास ही शत्रु सेना में घूम घूमकर भारी हलचल पैदा कर दी। जब अर्जुन बाण चलाते थे, उस समय समस्त प्राणी सदा उनके गाण्डीव धनुष की बड़े जोर से होने वाली अद्भुत टंकार सुनते थे। वैसी टंकार ध्वनि पहले किसी ने कभी नहीं सुनी थी। उसके सामने दूसरे सभी प्रकार के शब्द दब जाते थे।[4]

उस युद्ध भूमि में खड़े हुए हाथियों के सम्पूर्ण अंग बहुत थोड़ी-थोड़ी दूर पर बाणों से छिद गये थे। इस कारण वे सूर्य की किरणों से आवृत मेघों की घटा के समान दिखायी देते थे। अर्जुन सब दिशाओं में बार बार घूमते हुए दाँयें - बाँयें बाण चला रहे थे; इसलिये युद्ध में अलात चक्र की भाँति उनका मण्डलाकार धनुष सदा दृष्टिगोचर होता रहता था। जैसे आँखें रूप हीन पदार्थों पर कभी नहीं पड़तीं, उसी प्रकार गाण्डीवधारी अर्जुन के बाण उन व्यक्तियों पर नहीं पड़ते थे, जो उनके बाणों के लक्ष्य नहीं थे ( अर्थात् जिन्हें वे अपने बाणों का निशाना नहीं बनाना चाहते थे )। जैसे वन में एक साथ चलते हुए सहस्रों हाथियों के पद चिह्नों से बहुत साफ और चौड़ा रास्ता बन जाता है, उसी प्रकार किरीटधारी अर्जुन के रथ का मार्ग भी उनकी बाण वर्षा से साफ हो जाता था। अर्जुन के बाणों से घायल हुए शत्रु ऐसा समझते थे कि निश्चय ही अर्जुन की विजय की अभिलाषा रखने के कारण साक्षात इन्द्र सम्पूर्ण देवताओं के साथ आकर हमें मार रहे हैं। उस समर भूमि में असंख्य शत्रुओं का संहार करते हुए पार्थ की ओर देखकर लोग यह मानने लगे कि अर्जुन के रूप में साक्षात काल ही आकर सबका संहार कर रहा है। कौरव योद्धाओं के शरीर कुन्ती नन्दन अर्जुन के बाणों से घायल होकर छिन्न-भिन्न हो गये थे। वे पार्थ के बाणों से मारे हुए की ही भाँति पड़े थे; क्योंकि पार्थ के इस अद्भुत पराक्रम की उन्हीं से उपमा दी जा सकती थी। वे धान की बाल के समान शत्रुओं से सिर क्रमशः काटते जाते थे। अर्जुन के भय से कौरवों की सारी शक्ति नष्ट हो गयी थी। अर्जुन के शत्रु रूपी वन अर्जुन रूपी वायु से ही छिन्न-भिन्न हो लाल धाराएँ ( रक्त )बहाकर पृथ्वी को भी लाल करने लगे। वायु द्वारा उड़ायी हुई रक्त से सनी धूल के संसर्ग से आकाश में सूर्य की किरणें भी अधिक लाल हो गयीं। जैसे संध्याकाल में पश्चिम का आकाश लाल हो जाता है, उसी प्रकार उस समय सूर्य सहित आकाश लाल रंग का हो गया था। संध्याकाल में तो सूर्य अस्ताचल पर पहुँचकर पर-संताप-कर्म से निवृत्त हो जाते हैं; परंतु पाण्डु नन्दन अर्जुन शत्रु पीड़न रूपी कर्म से निवृत्त नहीं हुए। अचिन्त्य मन-बुद्धि वाले शूरवीर अर्जुन ने रण भूमि में पुरुषार्थ दिखाने के लियसे डटे हुए उन सभी धनुषधारियों पर अपने दिव्यास्त्रों द्वारा आक्रमण किया।[5]उन्होंने द्रोणाचार्य को तिहत्तर, दुःसह को दस, अश्वत्थामा को आठ, दुःशासन को बारह, शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य को तीन, शान्तनु नन्दन भीष्म को साठ तथा राजा दुर्योधन को सौ क्षुरप्र नाम वाले बाणों से घायल किया। तत्पश्चात् शत्रु वीरों का हनन करने वाले अर्जुन ने कर्ण के कान में एक कर्णी नामक बाण मारकर उसे बींध डाला। फिर उसके घोड़े और सारथि को भी यमलोक भेजकर रथहीन कर दिया। इस प्रकार सम्पूर्ण अस्त्रों के ज्ञाता महा धनुर्धर सुप्रसिद्ध कर्ण के घायल होने तथा उसके घोड़े, सारथि एवं रथ के नष्ट हो जाने पर सारी सेना में भगदड़ मच गयी।[6]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत विराट पर्व अध्याय 55 श्लोक 1-11
  2. बाणों के जाल पर रुक जाने से वे जल्दी नीचे नहीं गिरते थे
  3. उप सैनिकों को युद्ध के लिये उद्यत देख
  4. महाभारत विराट पर्व अध्याय 55 श्लोक 12-23
  5. महाभारत विराट पर्व अध्याय 55 श्लोक 24-35
  6. महाभारत विराट पर्व अध्याय 55 श्लोक 36-49

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