अर्जुन का उत्तरकुमार को अपना और अपने भाइयों का यथार्थ परिचय देना

महाभारत विराट पर्व के गोहरण पर्व के अंतर्गत अध्याय 44 में अर्जुन का उत्तरकुमार को अपना और अपने भाइयों का यथार्थ परिचय देने का वर्णन हुआ है। यहाँ वैशम्पायन जी ने जनमेजय सेअर्जुन का उत्तरकुमार को अपना और अपने भाइयों का यथार्थ परिचय देने की कथा कही है।[1]

अर्जुन द्वारा उत्तरकुमार को परिचय देना

उत्तर ने पूछा - बृहन्नले! रण में फुर्ती दिखाने वाले जिन महात्मा कुन्ती पुत्रों के ये सुवर्ण भूषित सुन्दर आयुध इतने प्रकाशित हो रहे हैं, वे पृथा पुत्र अर्जुन, कुनन्दन युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव और पाण्डु पुत्र भीमसेन अब कहाँ हैं? सम्पूर्ण शत्रुओं का नाश करने वाले वे सभी महात्मा जूए द्वारा अपना राज्य हारकर कहाँ गये? जिससे कहीं किसी प्रकार भी उनके विषय में कुछ सुनने में नहीं आता? पाञ्चाल देश की राजकुमारी द्रौपदी स्त्री रत्न के रूप में विख्यात हैं। वह कहाँ है ? सुना है, जब पाण्डव जूए में हार गये, तब द्रुपद कुमारी कृष्णा भी उन्हीें के साथ वन में चली गयी थी।

अर्जुन के दस नामों का वर्णन

अर्जुन ने कहा - राजकुमार! मैं ही पृथा पुत्र अर्जुन हूँ। राजा की सभा में माननीय सदस्य कंक ही युधिष्ठिर हैं। बल्लव भीमसेन हैं, जो तुम्हारे पिता के भोजनालय में रसोइये का काम करते हैं। अश्वों की देखभाल करने वाले ग्रन्थिक नकुल हैं और गोशाला के अध्यक्ष तन्त्तिपाल सहदेवसैरन्ध्री को ही द्रौपदी समझो, जिसके कारण सभी कीचक मारे गये। उत्तर बोला - मैंने पहले से जो अर्जुन के दस नाम सुन रक्खे हैं, उन्हें यदि तुम बता दो तो मैं तुम्हारी सारी बातों पर विश्वास कर सकता हूँ। अर्जुन ने कहा - विराट पुत्र! मेरे जो दस नाम हैं और जिन्हें तुमने पहले से ही सुन रक्खा है, उनका वर्णन करता हूँ, सुनो। एकाग्रचित्त हो सावधानी के साथ सबको सुनना। वे नाम ये हैं- अर्जुन, फाल्गुन, जिष्णु, किरीटी, श्वेतवाहन, बीभत्सु, विजय, कृष्ण, सव्यसाची और धनंजय

उत्तर ने पूछा - किस कारण आपका नाम विजय हुआ और किसलिये आप श्वेतवाहन कहलाते हैं? आपके किरीटी नाम धारण करने का क्या कारण है? और आप सव्यसाची नाम से कैसे प्रसिद्ध हुए? इसी प्रकार आपके अर्जुन, फाल्गुन, बीभत्सु और धनंजय नाम पड़ने का क्या कारण है? यह सब मुझे ठीक-ठीक बताइये। वीर अर्जुन के विभिन्न नाम पड़ने के जो प्रधान हेतु हैं, वे सब मैंने सुन रक्खे हैं। उन सबको यदि आप बता देंगे तो आपकी सब बातों पर मेरा विश्वास हो जायगा। अर्जुन ने कहा- मैं सम्पूर्ण देशों को जीतकर और उनसे[2]केवल धन लेकर धन के ही बीच में स्थित था, इसलिये लोग मुझे ‘धनंजय’ कहते हैं। जब मैं संग्राम भूमि में रणोन्मत्त योद्धाओं का सामना करने के लिये जाता हूँ, तब उन्हें परास्त किये बिना कभी नहीं लौटता, इसीलिये वीर पुरुष मुझे ‘विजय’ के नाम से जानते हैं।[1]

संग्राम में युद्ध करते सुय मेरे रथ में सोने के बख्तर से सजे हुए श्वेत रंग के घोड़े जोते जाते हैं, इसलिये मेरा नाम ‘श्वेतवाहन’ हुआ है तथा हिमालय के शिखर पर उत्तर फाल्गुनी नक्षत्र में दिन के समय मेरा जन्म हुआ था; इसलिये मुझे ‘फाल्गुन’ कहते हैं। युद्ध करते समय मैं किसी प्रकार भी बीभत्स[3]कर्म नहीं करता; इसलिये देवताओं और मनुष्यों में मेरी ‘बीभत्सु’ नाम से प्रसिद्धि हुई है। मेरा बाँया और दाहिना दोनों हाथ गाण्डीव धनुष की डोरी खींचने में समथ हैं, इसलिये देवताओं और मनुष्यों में लोग मुझे ‘सव्यसाची’ समझते हैं।[4]चारों ओर समुद्र पर्यन्त पृथ्वी पर मेरे जैसी दीप्ति दुर्लभ है। मैं सबके प्रति समभाव रखता हूँ और शुद्ध कर्म करता हूँ। इसी कारण विज्ञ पुरुष मुझे ‘अर्जुन’ के नाम से जानते हैं। मुझे पकड़ना या तिरस्कृत करना बहुत कठिन है। मैं इन्द्र का पुत्र एवं शत्रुदमन विजयी वीर हूँ, इसलिये देवताओं और मनुष्यों में ‘जिष्णु’ नाम से मेरी ख्याति हुई है।[5]मेरे यारीर का रंग कृष्ण्र-गौर है तथा बाल्यावस्था में चित्ताकर्षक होने के कारण मैं पिताजी को बहुत प्रिय था। अतः मेरे पिता ने ही मेरा दसवाँ नाम ‘कृष्ण) रक्खा था।

[6] कहते हैं - जनमेजय! तदनन्तर विराट पुत्र उत्तर ने निकट जाकर अर्जुन के चरणों में प्रणाम किया और बोला - ‘मेरा नाम भूमिंजय तथा उत्तर भी है। ‘कुन्ती नन्दन! मेरा सौभाग्य है कि मुझे आपका दर्शन मिला। धनुजय! आपका स्वागत है। महाबाहो! आपके नेत्र लाल हैं और बाहुबल गजराज के शुण्ड को लज्जित कर रहे हैं। ‘मैंने अज्ञानवश आपसे जो अनुचित बात कह दी हो, उसे आप क्षमा करेंगे। पूर्व काल में आपने अत्यन्त दुष्कर और अद्भुत कर्म किये हैं, इसलिये आपका संरक्षण पाकर मेरा भय दूर हो गया है और आपके प्रति मेरा प्रेम बहुत बढ़ गया है। ‘पार्थ! मैं आपका दास होऊँगा। आप मेरी ओर कृपापूर्ण दृष्टि से देखें। मैंने आपके सारथि का कार्य करने के लिये पहले जो प्रतिज्ञा की थी, उसके लिये अब मेरा मन स्वस्थ हो गया है। मेरा महान् सौभाग्य प्रकट हुआ है [7][8]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत विराट पर्व अध्याय 44 श्लोक 1-14
  2. कर रूप में
  3. घृणित
  4. अर्जुन शब्द के तीन अर्थ हैं - वर्ण या दीप्ति, ऋतुजा सा समता, धवल या शुद्ध।
  5. कृष्ण शब्द का अर्थ है - श्यामवर्ण तथा मन को आकर्षित करने वाला
  6. वैशम्पायन
  7. जिससे मुझे आपकी सेवा का यह शुभ अवसर प्राप्त हो रहा है।
  8. महाभारत विराट पर्व अध्याय 44 श्लोक 15-25

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