अश्वत्थामा के उद्गार

महाभारत विराट पर्व के गोहरण पर्व के अंतर्गत अध्याय 50 में अश्वत्थामा के उद्गार का वर्णन हुआ है। यहाँ वैशम्पायन जी ने जनमेजय से अश्वत्थामा के उद्गार की कथा कही है।[1]

अश्वत्थामा-कर्ण संवाद

अश्वत्थामा ने कहा - कर्ण! अभी तो हमने न गौओं को जीता है, न मत्स्य देश की सीमा के बाहर जा सके हैं और न हस्तिनापुर में ही पहुँच गये हैं। फिर तुम इतनी व्यर्थ बकवाद क्यों कर रहे हो?। विद्वान पुरुष बहुत सी लड़ाइयाँ जीतकर, असंख्य धनराशि पाकर तथा शत्रुओं की सेना को परास्त करके भी इस तरह व्यर्थ वकबाद नहीं करते। आग बिना कुछ कहे सुन ही सबको जलाकर भस्म कर देती है, सूर्यदेव मौन रहकर ही प्रकाशित होते हैं, पृथ्वी चुप रहकर ही सम्पूर्ण चराचर लोकों को धारण करती है। [2] ब्रह्माजी ने चारों वर्णों के कर्म नियत कर दिये हैं, जिनसे धन भी मिल सकता है और जिनका अनुष्ठान करने से कर्ता दोष का भागी नहीं होता। ब्राह्मण वेदों को पढ़कर यज्ञ करावे अथवा करे।

क्षत्रिय धनुष का आश्रय लेकर धन कमाये और यज्ञ करे; परंतु वह दूसरों का यज्ञ न करावे। [3] वैश्य कृषि और व्यापार आदि के द्वारा धनोपार्जन करके ब्राह्मणों के द्वारा वेदोक्त कर्म करावें और शूद्र वैतसी वृत्ति[4] का आश्रय ले प्रणाम और आज्ञा पालन आदि के द्वारा सदा तीनों वर्णों के पास रहकर उनकी सेवा करे। महान सौभाग्यशाली श्रेष्ठ पुरुष शास्त्र की आज्ञा के अनुसार बर्ताव करते हुए न्याय से इस पृथ्वी को प्राप्त करके भी अत्यन्त गुणहीन गुरुजनों का भी सत्कार करते हैं। [5]

अश्वत्थामा का उद्गार

भला जूए से राज्य पाकर कौन क्षत्रिय संतुष्ट हो सकता है? परंतु इस धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन को इसी में संतोष है; क्योंकि यह क्रूर और निर्दयी है। जैसे व्याघ्र शठता और छल कपट से भरे हुए उपायों द्वारा जीवन निर्वाह करता है, उस प्रकार कपटपूर्ण वृत्ति से धन पाकर कौन बुद्धिमान पुरुष अपने ही मुँह से अपनी बड़ाई करेगा? राजा दुर्योधन! तुमने जिन पाण्डवों का धन कपटद्वद्यूत के द्वारा हर लिया है, उनमें से धनंजय, नकुल या सहदेव किसको कब युद्ध में हराया है? वह कौन सा द्वन्द्व युद्ध हुआ था, जिसमें तुमने अर्जुन आदि में से किसी को जीता हो? धर्मराज युधिष्ठिर अथवा बलवानों में श्रेष्ठ भीमसेन तुम्हारे द्वारा किस युद्ध में परास्त किये गये हैं? आज जिस इन्द्रप्रस्थ पर तुम्हारा अधिकार है, उसे पहले तुमने किस युद्ध में जीता था?।[1]

दुष्ट कर्म करने वाले पापी! बताओ तो, कौन सा ऐसा युद्ध हुआ था, जिसमें तुमने द्रौपदी को जीत लिया हो? तुम लोग तो अकारण ही एक वस्त्र धारण करने वाली बेचारी द्रौपदी को रजस्वलावस्था में राजसभा के भीतर घसीट लाये थे। सूत पुत्र! जैसे धन की इच्छा रखने वाले मनुष्य चन्दन की लकड़ी काटता है, उसी प्रकार तुमने और दुर्योधन ने कपटद्यूत और द्रौपदी के अपमान द्वारा इन पाण्डवों का मूलोच्छेद किया। जिस समय तुम लोगों ने पाण्डवों को कर्मकार [6] बनाया था, उस दिन वहाँ महात्मा विदुर ने क्या कहा था; [7] याद है न?। हम देखते हैं, मनुष्य हों या अन्य जीव जन्तु अथवा कीड़े मकोड़े आदि ही क्यों न हों, सबमें अपनी अपनी शक्ति के अनुसार सहनशीलता की एक सीमा होती है। द्रौपदी को जो कष्ट दिये गये हैं, उन्हें पाण्डु पुत्र अर्जुन कभी क्षमा नहीं कर सकते। धृतराष्ट्र के पुत्रों का संहार करने के लिये ही धनंजय प्रकट हुए हैं और एक तुम हो, जो यहाँ पण्डित बनकर बड़ी बड़ी बातें बनाना चाहते हो। क्या वैर का बदला चुकाने वाले अर्जुन हम लोगों का संहार नहीं कर डालेंगे?।

यह कभी सम्भव नहीं है कि कुन्तीनन्दन अर्जुन भय के कारण देवता, गन्धर्व, असुर तथा राक्षसों से भी युद्ध न करें। जैसे गरुड़ जिस जिस वृक्ष पर पैर रखते हैं, अपने वेग से उसे गिराकर चले जाते हैं, उसी प्रकार अर्जुन अत्यन्त क्रोध में भरकर संग्राम भूमि में जिस जिस महारथी पर आक्रमण करेंगे, उसे नष्ट करके ही आगे बढ़ेंगे। कर्ण! अर्जुन पराक्रम में तुमसे बहुत बढ़े-चढ़े हैं, धनुष चलाने में तो वे इन्द्रराज के तुल्य हैं और युद्ध की कला में साक्षात वसुदेवनन्दन कृष्ण के समान हैं; ऐसे कुन्ती पुत्र की कौन प्रशंसा नहीं करेगा? जो देवताओं के साथ देवोचित्त ढेग से और मनुष्यों के साथ मानवोचित प्रणाली से युद्ध करते हैं और प्रत्येक अस्त्र को उसके विरोधी अस्त्र द्वारा नष्ट करते हैं, उन कुन्तीनन्दन धनंजय की समानता करने वाला कौन पुरुष है?। धर्मज्ञ पुरुष ऐसा मानते हैं कि गुरु को पुत्र के बाद शिष्य ही प्रिय होता है, इस कारण से भी पाण्डुनन्दन अर्जुन आचार्य द्रोण को प्रिय हैं।[8][9]

दुर्योधन! जैसे तुम लोगों ने जूए का खेल किया, जिस तरह इन्द्रप्रस्थ के राज्य का अपहरण किया और जिस प्रकार भरी सभा में द्रौपदी को घसीट कर ले गये, उसी प्रकार पाण्डु नन्दन अर्जुन से युद्ध भी करो।[10] ये तुम्हारे मामा शकुनि बड़े बुद्धिमान और क्षत्रिय धर्म के महापण्डित हैं। छल पूर्वक जूआ खेलने वाले वे गान्धार देश के नरेश शकुनि ही यहाँ युद्ध करें। गाण्डीव धनुष, सतयुग, द्वापर और त्रेता नामक पासे नहीं फेंकता है, वह तो लगातार तीखे और प्रज्वलित बाणों की वर्षा करता है।

गाण्डीव से छूटे हुए गीध के पंखों वाले तीखे बाण पर्वतों को भी विदीर्ण करने वाले हैं। वे शत्रु की छाती में घुसे बिना नहीं रहते। यमराज, वायु, मृत्यु और बड़वानल - ये चाहे जड़ मूल से नष्ट न करें, कुद बाकी छोड़ दें, परंतु कुपित होने पर कुछ भी नहीं छोड़ेंगे। राजन! जैसे राजसभा में तुमने मामा के साथ जूए का खेल किया है, उसी प्रकार संग्राम भूमि में भी तुम उन्हीं मामा शकुनि से सुरक्षित होकर युद्ध करो।[11] अथवा अन्य योद्धाओं की इच्छा हो, तो वे युद्ध कर सकते हैं, किंतु मैं अर्जुन के साथ नहीं लड़ूँगा। हमें तो मत्स्य देश से युद्ध करना है। यदि वे इस गोष्ठ पर आ जायँ, तो मैं उनके साथ युद्ध कर सकता हूँ।[12]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत विराट पर्व अध्याय 50 श्लोक 1-11
  2. इनमें से कोई अपने पराक्रम की प्रशंसा नहीं करता
  3. क्योंकि यह काम ब्राह्मणों का है
  4. बेंत के वृक्ष की भाँति नम्रता
  5. और यहाँ अन्याय से राज्य लेकर गुणवान् गुरुजनों का भी तिरस्कार हो रहा है
  6. दास
  7. उन्होंने जूए को कुरुकुल के संहार का कारण बताया था,
  8. अतः वे उनकी प्रशंसा क्यों न करें ?
  9. महाभारत विराट पर्व अध्याय 50 श्लोक 12-21
  10. जब उन अन्यायों के समय तुम्हें हमारे सहयोग की आवश्यकता नहीं जान पड़ी, तब इस युद्ध में भी सहयोग ही आशा न रक्खो
  11. किसी दूसरे से सहयोग की आशा न रक्खो
  12. महाभारत विराट पर्व अध्याय 50 श्लोक 22-28

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