भीमसेन और कीचक का युद्ध

महाभारत विराट पर्व के कीचकवध पर्व के अंतर्गत अध्याय 22 में भीमसेन और कीचक के युद्ध का वर्णन हुआ है[1]-

भीमसेन का संवाद

भीमसेन बोले- भद्रे! तू जैसा कह रही है, वैसा ही करूँगा। भीरु! मैं आज कीचक को उसके भाई-बन्धुओं सहित मार डालूँगा। पवित्र मुस्कान वाली द्रौपदी! तुम दुःख शोक भुलाकर आगामी रात्रि के प्रदोषकाल में कीचक से मिलो और उसे नृत्यशाला में आने के लिये कह दो। मत्स्यराज विराट ने जो यहाँ नृत्यशाला बनवायी है, उसमें दिन के समय तो कन्याएँ नाचती हैं तथा रात को अपने-अपने घर चली जाती हैं। उस नृत्यशाला में एक बहुत सुन्दर मजबूत पलंग बिछा हुआ है। वहीं आने पर उस कीचक को मैं उसके मरे हुए बाप-दादों का दर्शन कराऊँगा। तुम ऐसी चेष्टा करना, जिससे उसके साथ गुप्त वार्तालाप करते समय कोइ तुम्हें देख न ले।कल्याणी! तुम ऐसी बात करना, जिससे वहाँ दिये हुए संकेत के अनुसार वह अवश्य मेरे पास आ जाय। वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! इस प्रकार बातचीत करके वे दोनों दुखी दम्पति आँसू बहाकर अलग हुए तथा रात्रि के शेषभाग को उन्होंने बड़ी व्याकुलता से बिताया और आपस की बातचीत को मन में ही गुप्त रखा।

कीचक एवं द्रौपदी का संवाद

वह रात बीत जाने पर कीचक सवेरे उठा और राजमहल में जाकर द्रौपदी से इस प्रकार बोला- ‘सैरन्ध्री! मैंने राजसभा में तुम्हारे महाराज के देखते-देखते तुम्हें पृथ्वी पर गिराकर तुम्हें लातो से मारा था। तुम मुझ जैसे महाबलवान पुरुष के पाले पड़ी हो; तुम्हें कोई बचा नहीं सकता। ‘राजा विराट तो कहने के लिये ही मत्स्यदेश का नाममात्र का राजा है। वास्तव में मैं ही यहाँ का राजा हूँ; क्योंकि सेना का मालिक मैं हूँ। ‘भीरु! सुखपूर्वक मुझे स्वीकार कर लो, फिर तो मैं तुम्हारा दास बन जाऊँगा। सुश्रोणि! मैं तुम्हारे दैनिक खर्च के लिये प्रतिदिन सौ मोहरें देता रहूँगा। ‘तुम्हारी सेवा के लिये सौ दासियाँ और उतने ही दास दूँगा। तुमहारी सवारी के लिये खच्चरियों से जुता हुआ रथ प्रस्तुत रहेगा। भीरु! अब हम दोनों का परस्पर समागम होना चाहिये। द्रौपदी ने कहा- कीचक! यदि ऐसी बात है, तो आज मेरी एक शर्त स्वीकार करो। तुम मुझसे मिलने आते हो- यह बात तुम्हारा मित्र अथवा भाई कोई भी न जाने। क्योंकि मैं गन्धर्वों के अपवाद से डरती हूँ। यदि इस बात के लिये मुझसे प्रतिज्ञा करो, तो मैं तुम्हारे अधीन हो सकती हूँ।

कीचक बोला- ठीक है। सुश्रोणि! तुम जैसा कहती हो, वैसा ही करूँगा। भद्रे! तुम्हारे सूने घर में मैं अकेला ही आऊँगा। रम्भेरु! मैं काम से मोहित होकर तुम्हारे साथ समागम के लिये इस प्रकार आऊँगा, जिससे सूर्य के समान तेजसवी गन्धर्व तुम्हें उस समय मेरे साथ न देख सकें।

द्रौपदी ने कहा- कीचक! मत्स्यराज ने यह जो नृत्यशाला बनवायी है, उसमें दिन के समय कन्याएँ नृत्य करती हैं तथा रात में अपने-अपने घर चली जाती हैं। वहाँ अँधेरा रहता है, अतः मुझसे मिलने के लिये वहीं जाना। उस स्थान को गन्धर्व नहीं जानते। वहाँ मिलने से सब दोष दूर हो जायगा; इसमें संशय नहीं है।

कीचक बोला- भद्रे! भीरु! तुम जैसा ठीक समझती हो, वैसा ही करूँगा। शोभने! मैं तुमसे मिलने के लिये अकेला ही नृत्यशाला में आऊँगा। सुश्रोणि! यह बात मैं अपने पुण्य की शपथ खाकर कहता हूँ। वरवर्णिनी! मैं ऐसा प्रयत्न करूँगा, जिससे गन्धर्वों को तुम्हारे विषय में कुछ भी पता न लगे। मैं सच्ची प्रतिज्ञा करके कहता हूँ कि तुम्हें गन्धर्वों से कोई भय नहीं है।

कीचक का द्रौपदी के घर जाना

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! इस प्रकार कीचक के साथ बात करने के बाद द्रौपदी को अवशिष्ट आधा दिन[2] एक महीने के समान भारी मालूम हुआ। इधर कीचक महान हर्ष में भरा हुआ अपने घर को गया। उस मूर्ख को यह पता नहीं था कि सैरन्ध्री के रूप में मेरी मृत्यु आ रही है। वह तो काम से मोहित हो रहा था, अतः घर जाकर शीघ्र ही अपने आपको (गहने-कपड़ों से) सजाने लगा। वह विशेषतः सुगन्धित पदार्थों, आभूषणों तथा मालाओं के सेवन में संलग्न रहा। मन-ही-मन विशाल नेत्रों वाली द्रौपदी का बारंबार चिन्तन करते हुए श्रृंगार धारण करते समय कीचक को वह थोड़ा सा समय भी उत्कण्डावश बहुत बड़ा सा प्रतीत हुआ। वास्तव में जो सदा के लिये राजलक्ष्मी से वियुक्त होने वाला है, उस कीचक की भी उस समय श्रृंगार आदि धारण करने से श्री (शोभा) बहुत बढ़ गयी थी। ठीक उसी तरह, जैसे बुझने के समय बत्ती को भी जला देने की इच्छा वाले दीपक की प्रभा विशेष बढ़ जाती है। काममोहित कीचक ने द्रौपदी की बात पर पूरा विश्वास कर लिया था; अतः उसके समागम सुख का चिन्तन करते-करते उसे यह भी पता न चला कि दिन कब बीत गया।।

द्रौपदी एवं भीमसेन का संवाद

तदनन्तर कल्याण स्वरूपा द्रौपदी पाकशाला में अपने पति करुनन्दन भीमसेन के पास गयी। वहाँ सुन्दर लटों वाली कृष्णा ने कहा- ‘शत्रुतापन! जैसा तुमने कहा था, उसके अनुसार मैंने कीचक को नृत्यशाला में मिलने का संकेत कर दिया है। ‘अतः महाबाहो! कीचक रात के समय उस सूनी नृत्यशाला में अकेला आयेगा। तुम वहीं उसे मार डालना। ‘कुन्तीकुमार! पाण्डुनन्दन! तुम नृत्यशाला में जाकर उस मदोन्मत्त सूतपुत्र कीचक को प्राणशून्य कर दो। ‘प्रहार करने वालों में श्रेष्ठ वीर! वह सूतपुत्र अपनी वीरता के घमंड में आकर गन्धर्वों की अवहेलना करता है; अतःजलाशय से सर्प की भाँति उसे तुम इस जगत से निकाल फेंको।। ‘भारत! तुमहारा कल्याण हो। तुम कीचक को मारकर मुझ दुःख पीड़ित अबला के आँसू पोंछो तथा अपना और अपने कुल का सम्मान बढ़ाओ’।

भीमसेन बोले- वरारोहे! तुम्हारा स्वागत है; क्योंकि तुमने मुझे प्रिय संवाद सुनाया है। सुन्दरी! मैं इस कार्य में दूसरे किसी को सहायक बनाना नहीं चाहता। वरवर्णिनी! कीचक से मिलने के लिये तुमने जो शुभ संवाद दिया है और इसे सुनकर मुझे जितनी प्रसन्नता हुई है, ऐसी प्रसन्नता मुझे हिडिम्बासुर को मारकर प्राप्त हुई थी।। में सत्य, धर्म और भाइयों को आगे करके - उनकी शपथ खाकर तुमसे कहता हूँ, जैसे देवराज इन्द्र ने वृत्रासुर को मारा था, उसी प्रकार में भी कीचक का वध कर डालूँगा।[3] एकान्त में या जन-समुदाय में जहाँ भी वह मिलेगा, कीचक को मैं कुचल डालूँगा और यदि मत्स्यदेश के लोग उसकी ओर से युद्ध करेंगे तो, उन्हें भी निश्चय ही मार डालूँगा। तदनन्तर दुर्योधन को मारकर समूची पृथ्वी का राज्य ले लूँगा। भले ही कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर यहाँ बैठकर मत्स्यराज की उपासना करते रहें।

द्रौपदी ने कहा- प्रभो! तुम वही करो, जिससे मेरे लिये तुन्हें सत्य का परित्याग न करना पड़े। कुन्तीनन्दन! तुम अपने को गुप्त रखकर ही उस कीचक का संहार करो।

भीमसेन बोले- ठीक है, भीरु! तुम जैसा कहती हो, वही करूँगा। आज मैं उस कीचक को उसके भाई बन्धुओं सहित मार डालूँगा। अनिन्दिते! गजराज जैसे बेल के फल पर पैर रखकर उसे कुचल दे, उसी प्रकार मैं अँधेरी रात में उससे अदृश्य रहकर तुझ जैसी अलभ्य नारी को प्राप्त करने की इच्छा वाले दुरात्मा कीचक के मस्तक को कुचल डालूँगा।

भीमसेन की योजना का अनुसरण

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! तदनन्तर भीमसेन रात के समय पहले ही जाकर नृत्यशाला में छिपकर बैठ गये और कीचक की इस प्रकार प्रतीक्षा करने लगे, जैसे सिंह अदृश्य रहकर मृग की घात में बैठा रहता है। इधर कीचक भी इच्छानुसार वस्त्राभूषणों से सज-धजकर द्रौपदी के पास समागम की अभिलाषा से उसी समय नृत्यशाला के समीप आया। उस गृह को संकेत स्थान मानकर उसने भीतर प्रवेश किया। वह विशाल भवन सब ओर से अन्धकार से आच्छन्न हो रहा था। अतुलित पराक्रमी भीमसेन तो वहाँ पहले से ही आकर एकान्त में एक शय्या पर लेटे हुए थे। खोटी बुद्धि वाला सूतपुत्र कीचक वहाँ पहुँच गया और उन्हें हाथ से टटोलने लगा। उस समय भीमसेन कीचक द्वारा द्रौपदी के अपमान के कारण क्रोध से जल रहे थे। उनके पास पहुँचते ही काम मोहित कीचक हर्ष से उन्तत्तचित्त हो मुसकराते हुए बोला- ‘सुभ्रु! मैंने अनेक प्रकार का जो धन संचित किया है, वह सब तुम्हें भेंट कर दिया तथा मेरा जो धन रत्पनादि से सम्पन्न, सैंकड़ों दासी आदि उपकरणों से युक्त, रूपलावण्यवती युवतिशें से अलंकृत तथा क्रीड़ा-विलास से सुशोभित गृह एवं अन्तःपुर है, वह सब तुम्हारे लिये ही निछावर करके मैं सहसा तुम्हारे पास चला आया हूँ। मेरे घर की स्त्रियाँ अकस्मात मेरी प्रशंसा करने लगती हैं और कहती हैं - ‘आपके समान सुन्दर वस्त्रधारी और दर्शनीय दूसरा कोई पुरुष नहीं है’।

भीमसेन बोले- सौभाग्य की बात हैं कि तुम ऐसे दर्शनीय हो और यह भी भाग्य की बात है कि तुम स्वयं ही अपनी प्रशंसा कर रहे हो। परंतु ऐसा कोमल स्पर्श भी तुम्हें पहले कभी नहीं प्राप्त हुआ होगा। स्पर्श को तो तुम खूब पहचानते हो। इस कला में बड़े चतुर हो। कामधर्म के विलक्षण ज्ञाता जान पड़ते हो। इस संसार में स्त्रियो को प्रसन्न करने वाला तुम्हारे सिवा दूसरा कोई पुरुष नहीं है।

भीमसेन और कीचक का युद्ध

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! कीचक से ऐसा कहकर भयंकर पराक्रमी कुन्तीपुत्र महाबाहु भीमसेन सहसा उछलकर खड़े हो गये और हँसते हुए इस प्रकार बोले- ‘अरे! तू पर्वत के समान विशालकाय है, तो भी जैसे सिंह महान गजराज को घसीटता है, उसी प्रकार आज मैं तुझ पापी हो पृथ्वी पर पटककर घसीटूँगा और तेरी बहिन यह सब देखेगी।[4]

‘इस प्रकार मेरे मारे जाने पर सैरन्ध्री बेखट के विचरेगी और उसके पति भी सदा सुख से रहेंगे’। ऐसा कहकर महाबली भीमसेन ने उसके पुष्पहार विभूषित केश पकड़ लिये। कीचक भी बलवानों में श्रेष्ठ था। सिर के बाल पकड़ लिये जाने पर उसने बलपूर्वक झटका देकर उन्हें छुड़ा लिया और बड़ी फुर्ती से पाण्डुनन्दन भीम को दोनों भुजाओं में भर लिया। तदनन्तर क्रोध में भरे हुए उन दोनों पुरुषसिंह में बाहुयुद्ध होने लगा, मानों वसन्तऋतु में हथिनी के लिये दो बलवान गजराज एक दूसरे से जूझ रहे हों। एक ओर कीचकों का प्रधान कीचक था, तो दूसरी ओर मनुष्यों में श्रेष्ठ भीमसेन। जैसे पूर्वकाल में कपिश्रेष्ठ बाली और सुग्रीव दोनों भाइयों में घोर युद्ध हुआ था, वैसा ही इन दोनों में भी होने लगा। दोनों एक दूसरे पर कुपित थे और परस्पर विजय पाने की इच्छा से लड़ रहे थे। फिर दोनों क्रोधरूपी विष से उद्धत हुए पाँच मस्तकों वाले सर्पों की भाँति अपनी-अपनी (पाँच अंगंलियों से युक्त) भुजाओं को ऊपर उठाकर एक दूसरे पर नखों और दाँतों से प्रहार करने लगे। बलिष्ठ कीचक ने बड़े वेग से आघात किया, तो भी दृढ़ प्रतिज्ञ भीम उस युद्ध में स्थिर रहे; एक पग भी पीछे नहीं हटे। फिर दोनों आपस में गुँथ गये और एक-दूसरे को खींचने लगे। उस समय वे दो हृष्ट-पुष्ट साँड़ों की भाँति सुशोभित हो रहे थे। नख और दाँत ही उनके आयुध थे। जैसे दो मतवाले व्याघ्र परस्पर लड़ रहे हों, उसी प्रकार उनमें अत्यन्त भयंकर तुमुल युद्ध होने लगा।[5]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत विराट पर्व अध्याय 22 श्लोक 1-17
  2. भीमसेन से यह बात निवेदन करने की प्रतीक्षा में
  3. महाभारत विराट पर्व अध्याय 22 श्लोक 18-32
  4. महाभारत विराट पर्व अध्याय 22 श्लोक 33-50
  5. महाभारत विराट पर्व अध्याय 22 श्लोक 51-68

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