द्रौपदी का विराट नगर में लौटकर आना

महाभारत विराट पर्व के कीचकवध पर्व के अंतर्गत अध्याय 24 में द्रौपदी का विराट नगर में लौटकर आने का वर्णन हुआ है[1]-

सूतपुत्रों का संवाद

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! नगरवासियों ने सूतपुत्रों का यह संहार देख राजा विराट के पास जाकर निवेदन किया- महाराज! गन्धर्वों ने महाबली सूतपुत्रो को मार डाला। ‘जैसे पर्वत का महान शिखर वज्र से विदीर्ण हो गया हो, उसी प्रकार वे सूतपुत्र पृथ्वी पर बिखरे दिखायी देते हैं। ‘सैरन्ध्री बन्धनमुक्त हो गयी है, अब वह पुनः आपके महल की ओर आ रही है। उसके रहने से आपके सम्पूर्ण नगर का जीवन संकट में पड़ जायगा। ‘सैरन्ध्री का जैसा अप्रतिम रूप सौन्दर्य है, वह सबको विदित ही है। उसके पति गन्धर्व भी बड़े बलवान हैं। पुरुषों को मैथुन के लिये विषयभोग अभीष्ट है ही; इसमें संशय नहीं है।‘अतः राजन! आप शीघ्र ही कोई ऐसी नीति अपनावें, जिससें सैरन्ध्री के दोष से आपका यह नगर नष्ट न हो जाय।’।

विराट का संवाद

उनकी बात सुनकर सेनाओं के स्वामी राजा विराट ने कहा- ‘इन सूतपुत्रों का अन्त्येष्टि संस्कार किया जाय। ‘एक ही चिता में अग्नि प्रज्वलित करके रत्न और सुगन्धित पदार्थों के साथ सम्पूर्ण कीचकों का दाह करना चाहिये’। तदनन्तर राजा ने भयभीत होकर रानी सुदेष्णा के पास जाकर कहा- ‘देवि! जब सैरन्ध्री यहाँ आ जाय, तो मेरी ही ओर से उससे यों कहो- ‘सैरन्ध्री! तुम्हारा कल्याण हो। वरानने! तुम्हारी जहाँ रुचि हो, चली जाओ। सुश्रोणि! गन्धर्वों के तिरस्कार से राजा डरते हैं। ‘तुम गन्धर्वों से सुरक्षित हो। मैं पुरुष होने के कारण स्वयं तुमसे कोई बात नहीं कह सकता। किंतु स्त्री के मुख से तुम्हारे प्रति यह सब कहलाने में दोष नहीं है; अतः अपनी पत्नी के द्वारा स्वयं ही तुमसे यह बात कह रहा हूँ’।

द्रौपदी का विराट नगर में लौटकर आना

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! जब सूतपुत्रों को मारकर भीमसेन ने द्रौपदी का बन्धन खोल दिया और वह भय से मुक्त हो गयी, तब जल से स्नान करके अपने शरीर और वस्त्रों को धोकर सिंह से डरायी हुई हरिणी की भाँति वह मनस्विनी बाला नगर की ओर चली। जनमेजय! उस समय द्रौपदी को देखकर गन्धर्वों के भय से डरे हुए पुरुष दसों दिशाओं की ओर भाग जाते थे और कोई-कोई उसे देखकर आँख मूँद लेते थे। तदनन्तर पाकशाला के द्वार पर पहुँचकर पाञ्चाली ने वहाँ मतवाले गजराज के समान भीमसेन को खड़ा देखा।

द्रौपदी एवं भीमसेन का संवाद

विस्मय विमुग्ध होकर उसने धीरे से संकेतपूर्वक इस प्रकार कहा- ‘ उन गन्धर्वों को नमस्कार है, जिन्होंने मुझे भारी संकट से मुक्त किया है’।

भीमसेन बोले- देवि! जो पुरुष तुम्हारी आज्ञा के अधीन होकर यहाँ पहले से विचर रहे हैं, वे तुम्हारी यह बात सुनकर प्रतिज्ञा से उऋण हो इच्छानुसार विहार करें।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत विराट पर्व अध्याय 24 श्लोक 1-18

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