- महाभारत विराट पर्व के पाण्डवप्रवेश पर्व के अंतर्गत अध्याय 9 में द्रौपदी का सैरन्ध्री के वेश में रानी सुदेष्णा से वार्तालाप करने का वर्णन हुआ है[1]-
विषय सूची
द्रौपदी का सैरन्ध्री के वेश में विराट नगर में प्रवेश
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर पवित्र मन्द मुस्कान और कजरारे नेत्रों वाली द्रौपदी ने अपने सुन्दर, महीन, कोमल और बड़े-बड़े, काले एवं घुंघराले केशों की चोटी गूँथकर उन मृदुल अलकों को दाहिेने भाग में छिपा दिया और एक अत्यन्त मलिन वस्त्र धारण करके सैरन्ध्री का वेश बनाये वह दीन-दुखियों की भाँति नगर में विचरने लगी। उसे इधर-उधर भटकती देख बहुत सी स्त्रियाँ और पुरुष उसके पास दौड़े आये और पूछने लगे- ‘तुम कौन हो? और क्या करना चाहती हो ?
रानी केकय का संवाद
राजेन्द्र! उनके इस प्रकार पूछने पर द्रौपदी ने उनसे कहा- ‘मैं सैरन्ध्री[2] हूँ। जो मुझे अपने यहाँ नियुक्त करना चाहे, उसी के यहाँ में सैरन्ध्री का कार्य करना चाहती हूँ और इसीलिये यहाँ आयी हूँ।’ उसके रूप, वेष और मधुर वाणी से किसी को यह विश्वास नहीं हुआ कि यह दासी है और अन्न-वस्त्र के लिये यहाँ उपस्थित हुई है। इतने में ही राजा विराट की अत्यन्त प्यारी भार्या केकय राजकुमारी सुदेष्णा ने, जो अपने महल पर खड़ी हुई नगर की शोभा निहार रही थी, वहीं से द्रुपदकुमारी को देखा। वह एक वस्त्र धारण किये थी एवं अनाथा सी जान पड़ती थी।
ऐसे दिव्य रूप वाली तरुणी को उस अवस्था में देखकर रानी ने उसे अपने पास बुलाया और पूछा- ‘भद्रे! तुम कौन हो और क्या करना चाहती हो?’ ‘राजेन्द्र!
द्रौपदी का संवाद
तब द्रौपदी ने रानी सुदेष्णा से कहा- ‘में सैरन्ध्री हूँ। जो मुझे अपने यहाँ नियुक्त करना चाहे, उसके यहाँ रहकर मैं सैरन्ध्री का कार्य करना चाहती हूँ और इसीलिये यहाँ आयी हूँ’।
सुदेष्णा द्वारा द्रौपदी के स्वरूप का वर्णन
सुदेष्णा ने कहा- भामिनि! तुम जैसा कह रही हो, उसपर विश्वास नहीं होता, क्योंकि तुम्हारी जैसी रूपवती स्त्रियाँ सैरन्ध्री (दासी) नहीं हुआ करती। तुम तो बहुत सी दासियों और नाना प्रकार के बहुतेरे दासों को आज्ञा देने वाली रानी जैसी जान पड़ती हो। तुमहारे गुल्फ ऊँचे नहीं हैं, दोनों जाँघें सटी हुई हैं। तुम्हारी नाभि, वाणी और बुद्धि तीनों में गम्भीरता है। नाक, कान, आँख, नख और घाँटी इन छहों अंगों में ऊँचाई है। हाथों और पैरों के तलवे, आँख के कोने, ओठ, जिह्वा ओर नख- इन पाँचों अंगों में स्वाभाविक लालिमा है। हंसों की भाँति मणुर और गद्गद वाणी है। तुम्हारे केश काले और चिकने हैं। स्तन बहुत सुन्दर हैं। अंगकान्ति श्याम है। नितम्ब और उरोज पीन हैं। ऊपर कही हुई प्रत्येक विशेषता से तुम सम्पन्न हो। काश्मीर देश की घोड़ी के समान तुम में अनेक शुभ लक्षण हैं। तुम्हारे नेत्रों की पलकें काली और तिरछी हैं। ओष्ठ पके हुए बिम्बफल के समान लाल हैं। कमर पतली है। गर्दन शंख की शोभा को छीने लेती है। नसें मांस से ढंकी हुई हैं तथा मुख पूर्णिमा के चन्द्रमा को लज्जित कर रहा है। तुम रूप में उन्हीं लक्ष्मी के समान हो, जिनके नेत्र शरद् ऋतु के विकसित कमलदल के समान विशाल हैं, जिनके अंगों से यारत्कालीन कमल की सी सुगन्ध फैलती रहती है तथा जो शरद् ऋतु के कमलों का सेवन करती हैं।
द्रौपदी का रानी सुदेष्णा से वार्तालाप
सुदेष्णा ने कहा- कल्याणी! बताओ, तुम वास्तव में कौन हो ? दासी तो तुम किसी प्रकार भी नहीं हो सकतीं। तुम यक्षी हो या देवी ? गन्धर्वकन्या हो या अप्सरा ? देवकन्या हो या नागकन्या ? अथवा इस नगरी की अधिष्ठात्री देवी तो नहीं हो ? विद्याधरी, किन्नरी या चन्द्रदेव की पत्नी रोहिणी तो नहीं हो ? तुम अलम्बुधा, मिश्रकेशी, पुण्डरीका अािवा मालिनी नाम की अप्सरा तो नहीं हो ? क्या तुम इन्द्राणी, वारुणी देवी, विश्वकर्मा की पत्नी अथवा प्रजापति ब्रह्मा की शक्ति सावित्री हो ? शुभे! देवताओं के यहाँ जो प्रसिद्ध देवियाँ हैं, उनमें से तुम कौन हो ?
द्रौपदी बोली - रानी जी! मैं न तो देवी हूँ, न गन्धर्वी; न असुर पत्नी हूँ, न राक्षसी। मैं तो सेवा करने वाली सैरन्ध्री हूँ। यह मैं सच-सच कह रही हूँ। मैं केशों का श्रृंगार करना जानती हूँ तथा उबटन या अंगराग बहुत अच्छा पीस लेती हूँ। शुभे! मैं मल्लिका, उत्पल, कमल और चम्पा आदि के फूलों के बहुत सुन्दर एवं विचित्र हार भी गूँथ सकती हूँ। पहले मैं श्रीकृष्ण की प्यारी रानी सत्यभामा तथा कुरुकुल की एकमात्र सुन्दरी पाण्डवों की धर्मपत्नी द्रौपदी की सेवा में रह चुकी हूँ। मैं भिन्न-भिन्न स्थानों में सेवा करके उत्तम भेजन पाती हुई विचरती हूँ। मुझे जितने वस्त्र मिल जाते हैं, उतने में ही मैं प्रसन्न रहती हूँ। स्वयं देवी द्रौपदी ने मेरा नाम ‘मालिनी’ रख दिया था। देवि सुदेष्णे! आज वही मैं सैरन्ध्री आपके महल में आयी हूँ।[3]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महाभारत विराट पर्व अध्याय 9 श्लोक 1-13
- ↑ सैरन्ध्री किसे कहते हैं, ये स्वयं द्रौपदी ने इसके पूर्व तीसरे अध्याय के 18 वें श्लोक में बताया है।
- ↑ महाभारत विराट पर्व अध्याय 9 श्लोक 14-31
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