- महाभारत विराट पर्व के गोहरण पर्व के अंतर्गत अध्याय 46 में अर्जुन को ध्वज की प्राप्ति तथा उनके द्वारा शंखनाद का वर्णन हुआ है। यहाँ वैशम्पायन जी ने जनमेजय से अर्जुन को ध्वज की प्राप्ति तथा उनके द्वारा शंखनाद की कथा कही है।[1]
विषय सूची
वैशम्पाय-जनमेजय संवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय! उत्तर को सारथि बना शमी वृक्ष की परिक्रमा करके अपने सम्पूर्ण अस्त्र शस्त्र लेकर पाण्डवश्रेष्ठ अर्जुन युद्ध के लिये चले। उन महारथी पार्थ ने उस रथ पर से सिंह चिह्न युक्त ध्वजा को हटाकर शमी वृक्ष के नीचे रख दिया और सारथि उत्तर के साथ प्रस्थान किया। उस समय उन्होंने मन ही मन अग्नि देव के प्रसाद स्वरूप प्राप्त हुए अपने सुवर्णमय ध्वज का चिन्तन किया, जिस पर मूर्तिमान वानर उपलक्षित होता है और जिसकी लंबी पूँछ सिंह के समान हैं वह ध्वज क्या था, विश्वकर्मा की बनायी हुई दैवी माया थी, जो रथ में संयुक्त हो जाती थी। अग्निदेव ने अर्जुन का मनोभाव जानकर उस ध्वज पर स्थित रहने के लिये भूतों को आदेश दिया। तत्पश्चात् पताका तथा विचित्र अंग और उपांगों सहित वह अतिशय शक्तिशाली दिव्य रूप मनोरम ध्वज तुरंत ही आकाश से अर्जुन के रथ पर आ गिरा। इस प्रकार उस ध्वज को रथ पर आया हुआ देख यवेत घोड़ों वाले कुन्ती नन्दन अर्जुन ने उस रथ की परिक्रमा की तथा उसके ऊपर बैठकर अपनी अंगुलियों में गोह के चमड़े के बने हुए दस्ताने धारण किये। फिर कपिश्रेष्ठ हनुमान जी से उपलक्षित ध्वजा को फहराते हुए गाण्डीव धनुष के साथ उत्तर दिशा में प्रस्थान किया। उस समय शत्रुमर्दन महाबली अर्जुन ने घोर शब्द करने वाले अपने महान शंख को खूब जोर लगाकर बजाया।
अर्जुन द्वारा ध्वज प्राप्ति
जिसकी आवाज सुनकर शत्रुओं के रोंगटे खड़े हो गये। शत्रुदमन अर्जुन ने जो महान शंख फूँका था, वह चन्द्रमा के समान परत उज्ज्वल जान पड़ता था। उस शंख का जोर से होने वाला शब्द वर्षा काल के मेघ की गर्जना के समान सुनायी देता था। शंख की ध्वनि, धनुष की टंकार, वानर की गर्जना तथा रथ के पहियों की घर्घराहट से इन्द्रपुत्र अर्जुन ने समसत जंगम प्राणियों के मन में घोर भय का संचार कर दिया। उस शंख ध्वनि से घबराकर रथ के वेगशाली घोड़ों ने भी धरती पर घुटने टेक दिये और उत्तर भी अत्यन्त भयभीत हो रथ के ऊपरी भाग में जहाँ रथी का स्थान है, आ बैठा। तब कुन्ती नन्दन अर्जुन ने स्वयं रास खींचकर घाड़ों को खड़ा किया और उत्तर को हृदय से लगाकर धीरज बँधाया।
अर्जुन ने कहा - शत्रुओं को संताप देने वाले राजकुमार शिरोमणे! डरो मत, तुम क्षत्रिय हो। पुरुषसिंह! शत्रुओं के बीच में आकर घबराते कैसे हो?[1]
अर्जुन द्वारा शंखनाद
तुमने बहुत बार शंख ध्वनि सुनी होगी। रण भेरियों के भयंकर शब्द भी बहुत बार तुम्हारे कानों में पड़े होंगे और व्यूहबद्ध सेनाओं में खड़े हुए चिग्घाड़ने वाले गजराजों के शब्द भी तुमने सुने ही होंगे। फिर यहाँ इस शंखनाद से तुम भयभीत कैसे हो गये? साधारण मनुष्यों के समान अणिक डर जाने के कारण तुम्हारे शरीर का रंग फीका कैसे पड़ गया? उत्तर ने कहा- वीरवर! इसमें संदेह नहीं कि मैंने बहुत बार शंख ध्वनि सुनी है। रण भेरियों के भयंकर शब्द भी बहुत बार मेरे कानों में पड़े हैं और व्यूहबद्ध सेनाओं में खड़े हुए चिग्घाड़ने वाले गजराजों के शब्द भी मैंने सुने हैं। परंतु आज के पहले कभी ऐसा भयंकर शंखनाद मेरे सुनने में नहीं आया था और ध्वज का भी ऐसा रूप मैंने कभी नहीं देखा था। धनुष की ऐसी टंकार भी पहले कभी मैने नहीं सुनी थी। इस शंख के भयानक शब्द से, धनुष की अनुपम टंकार से, ध्वजा में निवास करने वाले मानवेतर प्राणियों के घोर शब्द से तथा रथ की भारी घर्घराहट से भी डरकर मेरा हृदय बहुत व्याकुल हो उठा है। सम्पूर्ण दिशाओं में घबराहट छा गयी है तथा मेरे हृदय में बड़ी व्यथा हो रही है, इस ध्वज ने तो समस्त दिशाओं को ढँक लिया है। अतः मुझे किसी दिशा की प्रतीति नहीं हो रही है। गण्डीव धनुष की अंकार से तो मेरे दोनों कान बहरे हो गये हैं। इस प्रकार दो घड़ी तक आगे बढ़ने पर अर्जुन ने विराट कुमार उत्तर से कहा-
अर्जुन बोले - राजकुमार! अब तुम रथ पर अच्छी तरह जम कर बैठ जाओ और अपनी टाँगों से बैठने के स्थान को जकड़ लो। साथ ही घोड़ों की रास को दृढ़ता पूर्वक पकड़े रहो। मैं फिर शंख बजाऊँगा।
वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय! तब अर्जुन ने इतने जोर से शंख बजाया मानो वे पर्वतों, पर्वतीय गुफाओं, सम्पूर्ण दिशाओं और बड़ी-बड़ी चट्टानों को भी विदीर्ण कर डालेंगे। उत्तर इस बार भी रथ के भीतरी भाग में छिपकर बैठ गया।। उस शंख के शब्द से, रथनेमियों की घर्घराहट से तथा गाण्डीव धनुष की टंकार से धरती काँप उठी।[2]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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