अर्जुन का उत्तरकुमार को आश्वासन देकर रथ पर चढ़ाना

महाभारत विराट पर्व के गोहरण पर्व के अंतर्गत अध्याय 38 में अर्जुन का उत्तरकुमार को आश्वासन देकर रथ पर चढ़ाने का वर्णन हुआ है[1]-

बृहन्नला द्वारा उत्तर को समझाना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! बृहन्नला ने कहा- राजकुमार! तुम भय के कारण दीन होकर शत्रुओं का हर्ष बढ़ा रहे हो। अभी तो शत्रुओं ने युद्ध के मैदान में कोई पराक्रम भी प्रकट नहीं किया है। तुमने स्वयं ही कहा कि मुझे कौरवों के पास ले चलो; अतः जहाँ ये बहुत सी ध्वजाएँ फहरा रही हैं? वहीं तुम्हें ले चलूँगी। महाबाहो! जैसे गीध मांस पर टूट पड़ते हैं, उसी प्रकार जो गौओं को लूटने के लिये यहाँ आये हैं, उन आततायी कौरवों के बीच तुम्हें ले चलती हूँ। यदि ये पृथ्वी के लिये भी युद्ध ठानेंगे तो उसमें भी मैं तुम्हें ले चलूँगी। तुम स्त्रियों और पुरुषों के बीच कौरवों को हराकर अपने गोधन को वापस लाने की प्रतिज्ञा करके पुरुषार्थ के विषय में अपनी श्लाघा करते हुए युद्ध के लिये निकले थे; फिर अब क्यो युद्ध नहीं करना चाहते ? यदि उन गौओं को बिना जीते तुम घर लौटोगे, तो वीर पुरुष तुम्हारी हँसी उड़ायेंगे और यत्र-तत्र स्त्रियाँ और पुरुष एकत्र हो तुम्हारा उपहास करेंगे। मैं भी सैरन्ध्री के द्वारा सारथ्य के कार्य में कुशल बतायी गयी हूँ, अतः अब गौओं को जीतकर वापस लिये बिना मैं नगर में नहीं जा सकूँगी। सैरन्ध्री और तुमने भी बड़ी-बड़ी बातें कहकर मेरी बहुत स्तुति प्रशंसा की है, फिर सम्पूर्ण कौरवों के साथ मैं ही क्यों न युद्ध करूँ? तुम दृढ़ता पूर्वक डट जाओ।

उत्तर का रणाभूमि छोड़कर भागना

उत्तर बोला - बृहन्नले! भारी संख्या में आये हुए कौरव भले ही मत्स्य देश का सारा धन इच्छानुसार हर ले जायँ, स्त्रियाँ अथवा पुरुष जितना चाहें, मेरा उपहास करें तथा मेरी गौएँ भी चली जायँ; किन्तु इस युद्ध में मेरा कोई काम नहीं है। मेरा नगर सूना पड़ा है।[2] मैं पिता जी से डरता हूँ ( इसलिये यहाँ नहीं ठहर सकता )।

वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय! ऐसा कहकर मान ओर अपमान को त्यागकर बाण सहित धनुष को वहीं छोड़कर कुण्डलधारी राजकुमार उत्तर रथ से कूद पड़ा और भयभीत होकर भाग चला।

अर्जुन द्वारा उत्तर का पीछा करना

तब बृहन्नला ने कहा - राजकुमार! क्षत्रिय का यु़द्ध से भागना शूरवीरों की दृष्टि में धर्म नहीं है। युद्ध करके मर जाना अच्छा है; किन्तु भयभीत होकर भागना कदापि अच्छा नहीं है। वैशम्पायन जी कहते हैं - राजन! ऐसा कहकर कुन्ती नन्दन धनुजय भी उस उत्तम रथ से कूद पड़े और भागते हुए राजकुमार को पकड़ने के लिये अपनी लंबी चोटी हिलाते और लाल रंग की साड़ी एवं दुपट्टे को फहराते हुए उसके पीछे-पीछे दौड़े।

कौरवों का अर्जुन पर हसना

उस समय चोटी हिला हिलाकर दौड़ते हुए अर्जुन को उस रूप में देखकर उन्हें न जानने वाले कुछ सैनिक ठहाका मारकर हँसने लगे। उन्हें शीघ्र गति से दौड़ते देख कौरव आपस में कहने लगे -‘यह कौन है जो राख में छिपी हुई अग्नि की भाँति नारी के वेश में छिपा है? इसकी कुछ बातें तो पुरुषों जैसी हैं और कुछ स्त्रियों जैसी। ‘इसका स्वरूप तो अर्जुन से मिलता-जुलता है; किंतु वेश भूषा इसने नपुंसकों जैसी बना रक्खी है। देखो न, वही अर्जुन जैसा सिर है, वैसी ही ग्रीवा है, वे ही परिघ जैसी मोटी भुजाएँ हैं और उन्हीं के समान इसकी चाल-ढाल है; अतः यह अर्जुन के सिवा दूसरा कोई नहीं है।[3] ‘मनुष्यों में धनुजय का वही स्थान है, जो देवताओं में इन्द्र का है। संसार में अर्जुन के सिवा दूसरा कौन वीर है, जो अकेला हम लोगों का सामना करने के लिये चला आये ?

कौरवों द्वारा विचार विमर्श

विराट के सूने नगर में उनका एक ही पुत्र देख-रेख के लिये रह गया था; सो यह बचपन (मूर्खता) के ही कारण हमारा सामना करने के लिये चला आया, अपने पुरुषार्थ से प्रेरित होकर नहीं। निश्चय ही कपट वेश में छिपे हुए कुन्ती पुत्र अर्जुन को अपना सारथि बनाकर उत्तर नगर से बाहर निकला था। ‘मालूम होता है, हम लोगों को देखकर यह बहुत डर गया है; इसीलिये भागा जाता है और ये अर्जुन अवश्य ही उस भागते हुए राजकुमार को पकड़ लाना चाहते हैं’।

वैशम्पायन जी कहते हैं - भारत! इस प्रकार सभी कौरव अलग-अलग विचार विमर्श करते थे, किंतु छद्म वेश में छिपे हुए पाण्डु नन्दन अर्जुन तथा उत्तर को देखकर भी वे किसी निश्चय पर नहीं पहुँच पाते थे। उस समय दुर्योधन ने रथियों में श्रेष्ठ समस्त सैनिकों से इस प्रकार कहा -‘अर्जुन, श्रीकृष्ण, बलराम और प्रद्युम्न भी संग्राम भूमि में हम लोगों का सामना नहीं कर सकते। यदि कोई दूसरा मनुष्य ही हीजड़े का रूप धारण करके इन गौओं के स्थान पर आयेगा, तो मैं उसे अपने तीखे बाणों से घायल करके धरती पर सुला दूँगा। यह सपर्याुक्त वीरों में से ही कोई एक हो, तो भी अकेला समस्त कौरवों के साथ कैसे युद्ध कर सकता है ?’ उधर ‘यह अर्जुन ही तो नहीं हैं ?’ नहीं, वे नहीं जान पड़ते।’ इस प्रकार आपस में मन्त्रणा करते हुए समस्त कौरव महारथी अर्जुन के विषय में कोई निश्चय नहीं कर पाते थे। कई एक कहने लगे कि ‘अर्जुन की शक्ति महान है। उनका पराक्रम इन्द्र के समान है। वे दृढ़ता पूर्वक शत्रुओं का बेधन करने वाले हैं। यदि वे ही आज युद्ध करने के लिये आ रहे हैं, तब तो समस्त सैनिकों का जीवन संशय में पड़ गया है।’ वे इस मनुष्य को वहाँ अर्जुन से भिन्न भी नहीं निश्चित कर पाते थे।

उत्तर का विलाप

उधर अर्जुन ने भागते हुए उत्तर का पीछा करके सौ कदम दूर जाते जाते उसके केश पकड़ लिये। अर्जुन के द्वारा पकड़ लिये जाने पर विराट पुत्र उत्तर बड़ी दीनता के साथ आर्त की भाँति विलाप करने लगा। उत्तर बोला - सुन्दर कटि वाली कल्याणमयी बृहन्नले! तुम मेरी बात सुनो। मेरे रथ को शीघ्र लौटाओ; क्योंकि मनुष्य जीवित रहे, तो वह अनेक बार मंगल देखता है।[4] मैं तुम्हें स्वर्ण की मोहरें देता हूँ, साथ ही अत्यन्त प्रकायामान स्वर्ण जटित आठ वैदूर्य मणियाँ भेंट करता हूँ। इतना ही नहीं, उत्तम घोड़ों से जुते हुए तथा सुवर्णमय दण्ड से युक्त एक रथ और दस मतवाले हाथी भी दे रहा हूँ। बृहन्नले! यह सब ले लो, किंतु तुम मुझे छोड़ दो।।

अर्जुन का उत्तरकुमार को आश्वासन देकर रथ पर चढ़ाना

वैशम्पायन जी कहते हैं -जनमेजय! उत्तर इसी तरह की बाते कहता और विलाप करता हुआ अचेत हो रहा था। पुरुषसिंह अर्जुन उसकी बातों पर हँसते हुए उसे रथ के समीप ले आये। जब वह भय से आतुर होकर अपनी सुध बुध खोने लगा तब अर्जुन ने उससे कहा - ‘शत्रुनायान! यदि तुम्हें शत्रुओं के साथ युद्ध करने का उत्साह नहीं है तो चलो; मैं उनसे युद्ध करूँगा। तुम मेरे घोड़ों की बागडोर सँभालो। ‘तुम मेरे बाहुबल से सुरक्षित हो इस रथ को सेना की ओर चलो, जो महारथी वीरों से सुरक्षित, घोर एवं अत्यनत दुर्धर्ष है। ‘राजपुत्र शिरोमणे! भयभीत न होओ। शत्रुओं को संताप देने वाले वीर! तुम क्षत्रिय हो, पुरुषसिंह! तुम शत्रुओं के बीच में आकर विषाद कैसे कर रहे हो? ‘देखो, मैं इस अतीव दुर्धर्ष तथा दुर्गम रथ सेना में घुसकर कौरवों से युद्ध करूँगा और तुम्हारे पशुओं को जीत लाऊँगा। ‘नरश्रेष्ठ! तुम केवल मेरे सारथि बन कर बैठे रहो। इन कौरवों के साथ युद्ध जो मैं करूँगा’। भरतश्रेष्ठ! जनमेजय! प्रहार करने वालों में श्रेष्ठ और कभी परास्त न होने वाले कुन्ती पुत्र अर्जुन ने उपयुक्त बातें कहकर विराट के कुमार उत्तर को दो घड़ी तक भली-भाँति समझाया बुझाया। तत्पश्चात् युद्ध की कामना से रहित, भय से व्याकुल और भागने के लिये छटपटाते हुए उत्तर को उन्होंने रथ पर चढ़ाया। अर्जुन अपने गाण्डीव धनुष को लाने के लिये पुनः उस शमीवृक्ष की ओर गये। उन्होंने उत्तर को समझा बुझाकर सारथि बनने के लिये राजी कर लिया था।[5]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत विराट पर्व अध्याय 38 श्लोक 12-21
  2. पिता जी उसकी रक्षा का भार मुझे दे गये थे।
  3. महाभारत विराट पर्व अध्याय 38 श्लोक 22-34
  4. महाभारत विराट पर्व अध्याय 38 श्लोक 35-42
  5. महाभारत विराट पर्व अध्याय 38 श्लोक 43-51

संबंधित लेख

महाभारत विराट पर्व में उल्लेखित कथाएँ


पांडवप्रवेश पर्व
विराटनगर में अज्ञातवास करने हेतु पांडवों की गुप्त मंत्रणा | अज्ञातवास हेतु युधिष्ठिर द्वारा अपने भावी कार्यक्रम का दिग्दर्शन | भीमसेन और अर्जुन द्वारा अज्ञातवास हेतु अपने अनुकूल कार्यों का वर्णन | नकुल, सहदेव और द्रौपदी द्वारा अज्ञातवास हेतु अपने कर्तव्यों का दिग्दर्शन | धौम्य द्वारा पांडवों को राजा के यहाँ रहने का ढंग बताना | पांडवों का श्मशान में शमी वृक्ष पर अपने अस्त्र-शस्त्र रखना | युधिष्ठिर द्वारा दुर्गा देवी की स्तुति | युधिष्ठिर का राजसभा में राजा विराट से मिलना | युधिष्ठिर का विराट के यहाँ निवास पाना | भीमसेन का विराट की सभा में प्रवेश और राजा द्वारा उनको आश्वासन | द्रौपदी का सैरन्ध्री के वेश में रानी सुदेष्णा से वार्तालाप | द्रौपदी का रानी सुदेष्णा के यहाँ निवास पाना | सहदेव की विराट के यहाँ गौशाला में नियुक्ति | अर्जुन की विराट के यहाँ नृत्य प्रशिक्षक के पद पर नियुक्ति | नकुल का विराट के अश्वों की देखरेख में नियुक्त होना
समयपालन पर्व
भीमसेन द्वारा जीमूत नामक मल्ल का वध
कीचकवध पर्व
कीचक की द्रौपदी पर आसक्ति और प्रणय निवेदन | द्रौपदी द्वारा कीचक को फटकारना | सुदेष्णा का द्रौपदी को कीचक के यहाँ भेजना | कीचक द्वारा द्रौपदी का अपमान | द्रौपदी का भीमसेन के समीप जाना | द्रौपदी का भीमसेन से अपना दु:ख प्रकट करना | द्रौपदी का भीमसेन के सम्मुख विलाप | द्रौपदी का भीमसेन से अपना दु:ख निवेदन करना | भीमसेन और द्रौपदी का संवाद | भीमसेन और कीचक का युद्ध | भीमसेन द्वारा कीचक का वध | उपकीचकों का सैरन्ध्री को बाँधकर श्मशानभूमि में ले जाना | भीमसेन द्वारा उपकीचकों का वध | द्रौपदी का विराट नगर में लौटकर आना | द्रौपदी का बृहन्नला और सुदेष्णा से वार्तालाप
गोहरण पर्व
दुर्योधन को उसके गुप्तचरों द्वारा कीचकवध का वृत्तान्त सुनाना | दुर्योधन का सभासदों से पांडवों का पता लगाने हेतु परामर्श | द्रोणाचार्य की सम्मति | युधिष्ठिर की महिमा कहते हुए भीष्म की पांडव अन्वेषण के विषय में सम्मति | कृपाचार्य की सम्मति और दुर्योधन का निश्चय | सुशर्मा का कौरवों के लिए प्रस्ताव | त्रिगर्तों और कौरवों का मत्स्यदेश पर धावा | पांडवों सहित विराट की सेना का युद्ध हेतु प्रस्थान | मत्स्य तथा त्रिगर्त देश की सेनाओं का युद्ध | सुशर्मा द्वारा विराट को बन्दी बनाना | पांडवों द्वारा विराट को सुशर्मा से छुड़ाना | युधिष्ठिर का अनुग्रह करके सुशर्मा को मुक्त करना | विराट द्वारा पांडवों का सम्मान | विराट नगर में राजा विराट की विजय घोषणा | कौरवों द्वारा विराट की गौओं का अपहरण | गोपाध्यक्ष का उत्तरकुमार को युद्ध हेतु उत्साह दिलाना | उत्तर का अपने लिए सारथि ढूँढने का प्रस्ताव | द्रौपदी द्वारा उत्तर से बृहन्नला को सारथि बनाने का सुझाव | बृहन्नला के साथ उत्तरकुमार का रणभूमि को प्रस्थान | कौरव सेना को देखकर उत्तरकुमार का भय | अर्जुन का उत्तरकुमार को आश्वासन देकर रथ पर चढ़ाना | द्रोणाचार्य द्वारा अर्जुन के अलौकिक पराक्रम की प्रशंसा | अर्जुन का उत्तर को शमीवृक्ष से अस्त्र उतारने का आदेश | उत्तर का शमीवृक्ष से पांडवों के दिव्य धनुष आदि उतारना | उत्तर का बृहन्नला से पांडवों के अस्त्र-शस्त्र के विषय में प्रश्न करना | बृहन्नला द्वारा उत्तर को पांडवों के आयुधों का परिचय कराना | अर्जुन का उत्तरकुमार को अपना और अपने भाइयों का यथार्थ परिचय देना | अर्जुन द्वारा युद्ध की तैयारी तथा अस्त्र-शस्त्रों का स्मरण | अर्जुन द्वारा उत्तरकुमार के भय का निवारण | अर्जुन को ध्वज की प्राप्ति तथा उनके द्वारा शंखनाद | द्रोणाचार्य का कौरवों से उत्पात-सूचक अपशकुनों का वर्णन | दुर्योधन द्वारा युद्ध का निश्चय | कर्ण की उक्ति | कर्ण की आत्मप्रंशसापूर्ण अहंकारोक्ति | कृपाचार्य का कर्ण को फटकारना और युद्ध हेतु अपना विचार बताना | अश्वत्थामा के उद्गार | भीष्म द्वारा सेना में शान्ति और एकता बनाये रखने की चेष्टा | द्रोणाचार्य द्वारा दुर्योधन की रक्षा के प्रयत्न | पितामह भीष्म की सम्मति | अर्जुन का दुर्योधन की सेना पर आक्रमण और गौओं को लौटा लाना | अर्जुन का कर्ण पर आक्रमण और विकर्ण की पराजय | अर्जुन द्वारा शत्रुंतप और संग्रामजित का वध | कर्ण और अर्जुन का युद्ध तथा कर्ण का पलायन | अर्जुन द्वारा कौरव सेना का संहार | उत्तर का अर्जुन के रथ को कृपाचार्य के पास लेना | अर्जुन और कृपाचार्य का युद्ध देखने के लिए देवताओं का आगमन | कृपाचार्य और अर्जुन का युद्ध | कौरव सैनिकों द्वारा कृपाचार्य को युद्ध से हटा ले जाना | अर्जुन का द्रोणाचार्य के साथ युद्ध | द्रोणाचार्य का युद्ध से पलायन | अर्जुन का अश्वत्थामा के साथ युद्ध | अर्जुन और कर्ण का संवाद | कर्ण का अर्जुन से हारकर भागना | अर्जुन का उत्तरकुमार को आश्वासन | अर्जुन से दु:शासन आदि की पराजय | अर्जुन का सब योद्धाओं और महारथियों के साथ युद्ध | अर्जुन द्वारा कौरव सेना के महारथियों की पराजय | अर्जुन और भीष्म का अद्भुत युद्ध | अर्जुन के साथ युद्ध में भीष्म का मूर्च्छित होना | अर्जुन और दुर्योधन का युद्ध | दुर्योधन का विकर्ण आदि योद्धाओं सहित रणभूमि से भागना | अर्जुन द्वारा समस्त कौरव दल की पराजय | कौरवों का स्वदेश को प्रस्थान | अर्जुन का विजयी होकर उत्तरकुमार के साथ राजधानी को प्रस्थान | विराट की उत्तरकुमार के विषय में चिन्ता | उत्तरकुमार का नगर में प्रवेश और प्रजा द्वारा उनका स्वागत | विराट द्वारा युधिष्ठिर का तिरस्कार और क्षमा-प्रार्थना | विराट का उत्तरकुमार से युद्ध का समाचार पूछना | विराट और उत्तरकुमार की विजय के विषय में बातचीत | अर्जुन का विराट को महाराज युधिष्ठिर का परिचय देना | विराट को अन्य पांडवों का परिचय प्राप्त होना | विराट का युधिष्ठिर को राज्य समर्पण और अर्जुन-उत्तरा विवाह का प्रस्ताव | अर्जुन द्वारा उत्तरा को पुत्रवधू के रूप में ग्रहण करना | अभिमन्यु और उत्तरा का विवाह | विराट पर्व श्रवण की महिमा

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः