कृपाचार्य का कर्ण को फटकारना और युद्ध हेतु अपना विचार बताना

महाभारत विराट पर्व के गोहरण पर्व के अंतर्गत अध्याय 49 में कृपाचार्य का कर्ण को फटकारना और युद्ध हेतु अपना विचार बताने का वर्णन हुआ है। यहाँ वैशम्पायन जी ने जनमेजय से कृपाचार्य का कर्ण को फटकारना और युद्ध हेतु अपना विचार बताने की कथा कही है।[1]

कृपाचार्य-कर्ण संवाद

तदनन्तर कृपाचार्य ने कहा- राधा नन्दन! युद्ध के विषय में तुम्हारा विचार सदा ही क्रूरतापूर्ण रहता है। तुम न जो कार्यों के स्वरूप को ही जानते हो और न उसके परिणाम का ही विचार करते हो। मैंने शास्त्र का आश्रय लेकर बहुत सी मायाओं का चिन्तन किया है; किंतु उन सबमें युद्ध ही सर्वाधिक पापपूर्ध कर्म है- ऐसा प्राचीन विद्वान बताते हैं। देश और काल के अनुसार जो युद्ध किया जाता है, वह विजय देने वाला होता है; किंतु जो अनुपयुक्त काल में किया जाता है, वह युद्ध सफल नहीं होता। देश ओर काल के अनुसार किया हुआ पराक्रम ही कल्याणकारी होता है। देश और काल की अनुकूलता होने से ही कार्यों का फल सिद्ध होता है। विद्वान पुरुष रथ बनाने वाले [2] की बात पर ही सारा भार डालकर स्वयं देश काल का विचार किये बिना युद्ध आदि का निश्चय नहीं करते।[3] विचार करने पर तो यही समझ में आता है कि अर्जुन के साथ युद्ध करना हमारे लिये कदापि उचित नहीं है।;[4] अर्जुन ने अकेले ही उत्तर कुरुदेश पर चढ़ाई की और उसे जीत लिया। अकेले ही खाण्डव वन देकर अग्नि को तृप्त किया। उन्होंने अकेले ही पाँच वर्ष तक कठोर तप करते हुए ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया। अकेले ही सुभद्रा को रथ पर बिठाकर उसका अपहरण किया औश्र इन्द्र युद्ध के लिये श्रीकृष्ण को भी ललकारा।

अर्जुन ने अकेले ही किरात रूप में सामने आये हुए भगवान शंकर से युद्ध किया। इसी वनवास की घटना है, जब जयद्रथ ने द्रौपदी का अपहरण कर लिया था, उस समय भी अर्जुन ने अकेले ही उसे हराकर द्रौपदी को उसके हाथ से छुड़ाया था। उन्होंने अकेले ही पाँच वर्ष तक स्वर्ग में रहकर साक्षात इन्द्र से अस्त्र शस्त्र सीखे हैं और अकेले ही सब शत्रुओं को जीतकर कुरुवंश का यश बढ़ाया है। शत्रुओं का दमन करने वाले महावीर अर्जुन ने कौरवों की घोष यात्रा के समय युद्ध में गन्धर्वों की दुर्जय सेना का वेग पूर्वक सामना करते हुए अकेले ही गन्धर्वराज चित्रसेन पर विजय पायी थी। निवातकवच और कालखन्ज आदि दानवगण तो देवताओं के लिये भी अवध्य थे, किंतु अर्जुन ने अकेले ही उन सबकों युद्ध में मार गिराया है।[1]

किंतु कर्ण! तुम तो बताओ, तुमने पहले कभी अकेले रहकर इस जगत में कौन सा पुरुषार्थ किया है? पाण्डवों में से तो एक एक ने विभिन्न दिशाओं में जाकर वहाँ के भूपालों को अपने वश में कर लिया था [5] अर्जुन के साथ तो इन्द्र भी रण भूमि में खड़े होकर युद्ध नहीं कर सकते। फिर जो उनसे अकेले भिड़ने की बात करता है,[6] उसकी दया करानी चाहिये। सूत पुत्र![7] तुम मानो क्रोध में भरे हुए विषधर सर्प के मुख में से उसके दाँत उखाड़ लेना चाहते हो। अथवा वन में अकेले घूमते हुए तुम बिना अंकुश के ही मतवाले हाथी की पीठ पर बैठकर नगर में जाना चाहते हो। अथवा अपने शरीर में घी पोतकर चिथड़े या वल्कल पहने हुए तुम घी, मैदा और चर्बी आदि की आहुतियों से प्रज्वलित आग के भीतर से होकर निकलना चाहते हो।

कृपाचार्य द्वारा युद्ध के लिए विचार रखना

अपने आपको बन्धन में जकड़कर और गले में बड़ी भारी शिला बाँधकर कौन दोनों हाथों से तैरता हुआ समुद्र को पार कर सकता है? उसमें क्या यह पुरुषार्थ है! अर्थात मूर्खता है। कर्ण! जिसने अस्त्र शस्त्रों की पूर्ण शिक्षा न पायी हो, वह अत्यनत दुर्बल पुरुष यदि अस्त्र शास्त्रों की कला में प्रवीण कुन्ती पुत्र अर्जुन जैसे बलवान् वीर से युद्ध करना चाहे, तो समझना चाहिये कि उसकी बुद्धि मारी गयी है। हम लोगों ने तेरह वर्षों तक इन्हें वन में रखकर इनके साथ कपटपूर्ण बर्ताव किया है। [8]अतः बन्धन से छूटे हुए सिंह की भाँति क्या वे हमारा विनाश न कर डालेंगे ? कुएँ में छिपी हुई अग्नि के समान यहाँ एकान्त में स्थित कुनती पुत्र अर्जुन के पास मि अज्ञानवश आ पहुँचे हैं और भारी संकट में पड़ गये हैं। इसलिये हमारा विचार है हम लोग एक साथ संगठित होकर यहाँ आये हुए रणोन्मत्त अर्जुन के साथ युद्ध करें। हमारे सैनिक कवच बाँधकर खड़े रहें, सेना का व्यूह बना लिया जाय और सब लोग प्रहार करने के लिये उद्यत हो जायँ।

कर्ण! तुम अकेले अर्जुन से भिड़ने का दुःसाहस न करो। आचार्य द्रोण, दुर्योधन, भीष्म, तुम, अश्वत्थामा और हम सब मिलकर अर्जुन से युद्ध करेंगे। यदि हम छहों महारथी संगठित होकर सामना करें, तभी इन्द्र के सदृश दुर्धर्ष एवं दृढ़ निश्चयी कुन्ती पुत्र अर्जुन के साथ युद्ध कर सकते हैं। सेनाओं की व्यूह रचना हो जाय और हम सभी श्रेष्ठ धनुर्धर सावधान रहें, तो जैसे दानव इन्द्र से भिड़ते हैं, उसी प्रकार हम युद्ध में अर्जुन का सामना कर सकते हैं।[9]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत विराट पर्व अध्याय 49 श्लोक 1-10
  2. सूत
  3. जैसे कोई रथ बनाने वाला करीगर रथ लगाकर यह कहे मेंने इस दिव्य रथ का निर्माण किया है। इसका प्रत्येक अंग सुढृढ़ है। इस पर बैठकर युद्ध करने से तुम देवताओं पर भी सर्वथा विजय पा सकोगे। तो उसके इस कहने पर भरोसा करके कोई बुद्धिमान पुरुष युद्ध के लिए तैयार न हो जायेगा। इसी प्रकार कर्ण! केवल तुम्हारे इस डीग मारने पर भरोसा करके देश का काल आदि का युद्ध के लिए उघत होना ठीक नही है, यदि कृपाचार्य के उपयुक्त कथन का अभिप्राय है।
  4. क्योंकि वे अकेले भी हमें परास्त कर सकते हैं
  5. क्या तुमने भी ऐसा कोई कार्य किया है?
  6. वह पागल है।
  7. अर्जुन के साथ अकेले भिड़ने का साहस करके
  8. अब ये प्रतिज्ञा के बन्धन से मुक्त हो गये हैं;
  9. महाभारत विराट पर्व अध्याय 49 श्लोक 11-23

संबंधित लेख

महाभारत विराट पर्व में उल्लेखित कथाएँ


पांडवप्रवेश पर्व
विराटनगर में अज्ञातवास करने हेतु पांडवों की गुप्त मंत्रणा | अज्ञातवास हेतु युधिष्ठिर द्वारा अपने भावी कार्यक्रम का दिग्दर्शन | भीमसेन और अर्जुन द्वारा अज्ञातवास हेतु अपने अनुकूल कार्यों का वर्णन | नकुल, सहदेव और द्रौपदी द्वारा अज्ञातवास हेतु अपने कर्तव्यों का दिग्दर्शन | धौम्य द्वारा पांडवों को राजा के यहाँ रहने का ढंग बताना | पांडवों का श्मशान में शमी वृक्ष पर अपने अस्त्र-शस्त्र रखना | युधिष्ठिर द्वारा दुर्गा देवी की स्तुति | युधिष्ठिर का राजसभा में राजा विराट से मिलना | युधिष्ठिर का विराट के यहाँ निवास पाना | भीमसेन का विराट की सभा में प्रवेश और राजा द्वारा उनको आश्वासन | द्रौपदी का सैरन्ध्री के वेश में रानी सुदेष्णा से वार्तालाप | द्रौपदी का रानी सुदेष्णा के यहाँ निवास पाना | सहदेव की विराट के यहाँ गौशाला में नियुक्ति | अर्जुन की विराट के यहाँ नृत्य प्रशिक्षक के पद पर नियुक्ति | नकुल का विराट के अश्वों की देखरेख में नियुक्त होना
समयपालन पर्व
भीमसेन द्वारा जीमूत नामक मल्ल का वध
कीचकवध पर्व
कीचक की द्रौपदी पर आसक्ति और प्रणय निवेदन | द्रौपदी द्वारा कीचक को फटकारना | सुदेष्णा का द्रौपदी को कीचक के यहाँ भेजना | कीचक द्वारा द्रौपदी का अपमान | द्रौपदी का भीमसेन के समीप जाना | द्रौपदी का भीमसेन से अपना दु:ख प्रकट करना | द्रौपदी का भीमसेन के सम्मुख विलाप | द्रौपदी का भीमसेन से अपना दु:ख निवेदन करना | भीमसेन और द्रौपदी का संवाद | भीमसेन और कीचक का युद्ध | भीमसेन द्वारा कीचक का वध | उपकीचकों का सैरन्ध्री को बाँधकर श्मशानभूमि में ले जाना | भीमसेन द्वारा उपकीचकों का वध | द्रौपदी का विराट नगर में लौटकर आना | द्रौपदी का बृहन्नला और सुदेष्णा से वार्तालाप
गोहरण पर्व
दुर्योधन को उसके गुप्तचरों द्वारा कीचकवध का वृत्तान्त सुनाना | दुर्योधन का सभासदों से पांडवों का पता लगाने हेतु परामर्श | द्रोणाचार्य की सम्मति | युधिष्ठिर की महिमा कहते हुए भीष्म की पांडव अन्वेषण के विषय में सम्मति | कृपाचार्य की सम्मति और दुर्योधन का निश्चय | सुशर्मा का कौरवों के लिए प्रस्ताव | त्रिगर्तों और कौरवों का मत्स्यदेश पर धावा | पांडवों सहित विराट की सेना का युद्ध हेतु प्रस्थान | मत्स्य तथा त्रिगर्त देश की सेनाओं का युद्ध | सुशर्मा द्वारा विराट को बन्दी बनाना | पांडवों द्वारा विराट को सुशर्मा से छुड़ाना | युधिष्ठिर का अनुग्रह करके सुशर्मा को मुक्त करना | विराट द्वारा पांडवों का सम्मान | विराट नगर में राजा विराट की विजय घोषणा | कौरवों द्वारा विराट की गौओं का अपहरण | गोपाध्यक्ष का उत्तरकुमार को युद्ध हेतु उत्साह दिलाना | उत्तर का अपने लिए सारथि ढूँढने का प्रस्ताव | द्रौपदी द्वारा उत्तर से बृहन्नला को सारथि बनाने का सुझाव | बृहन्नला के साथ उत्तरकुमार का रणभूमि को प्रस्थान | कौरव सेना को देखकर उत्तरकुमार का भय | अर्जुन का उत्तरकुमार को आश्वासन देकर रथ पर चढ़ाना | द्रोणाचार्य द्वारा अर्जुन के अलौकिक पराक्रम की प्रशंसा | अर्जुन का उत्तर को शमीवृक्ष से अस्त्र उतारने का आदेश | उत्तर का शमीवृक्ष से पांडवों के दिव्य धनुष आदि उतारना | उत्तर का बृहन्नला से पांडवों के अस्त्र-शस्त्र के विषय में प्रश्न करना | बृहन्नला द्वारा उत्तर को पांडवों के आयुधों का परिचय कराना | अर्जुन का उत्तरकुमार को अपना और अपने भाइयों का यथार्थ परिचय देना | अर्जुन द्वारा युद्ध की तैयारी तथा अस्त्र-शस्त्रों का स्मरण | अर्जुन द्वारा उत्तरकुमार के भय का निवारण | अर्जुन को ध्वज की प्राप्ति तथा उनके द्वारा शंखनाद | द्रोणाचार्य का कौरवों से उत्पात-सूचक अपशकुनों का वर्णन | दुर्योधन द्वारा युद्ध का निश्चय | कर्ण की उक्ति | कर्ण की आत्मप्रंशसापूर्ण अहंकारोक्ति | कृपाचार्य का कर्ण को फटकारना और युद्ध हेतु अपना विचार बताना | अश्वत्थामा के उद्गार | भीष्म द्वारा सेना में शान्ति और एकता बनाये रखने की चेष्टा | द्रोणाचार्य द्वारा दुर्योधन की रक्षा के प्रयत्न | पितामह भीष्म की सम्मति | अर्जुन का दुर्योधन की सेना पर आक्रमण और गौओं को लौटा लाना | अर्जुन का कर्ण पर आक्रमण और विकर्ण की पराजय | अर्जुन द्वारा शत्रुंतप और संग्रामजित का वध | कर्ण और अर्जुन का युद्ध तथा कर्ण का पलायन | अर्जुन द्वारा कौरव सेना का संहार | उत्तर का अर्जुन के रथ को कृपाचार्य के पास लेना | अर्जुन और कृपाचार्य का युद्ध देखने के लिए देवताओं का आगमन | कृपाचार्य और अर्जुन का युद्ध | कौरव सैनिकों द्वारा कृपाचार्य को युद्ध से हटा ले जाना | अर्जुन का द्रोणाचार्य के साथ युद्ध | द्रोणाचार्य का युद्ध से पलायन | अर्जुन का अश्वत्थामा के साथ युद्ध | अर्जुन और कर्ण का संवाद | कर्ण का अर्जुन से हारकर भागना | अर्जुन का उत्तरकुमार को आश्वासन | अर्जुन से दु:शासन आदि की पराजय | अर्जुन का सब योद्धाओं और महारथियों के साथ युद्ध | अर्जुन द्वारा कौरव सेना के महारथियों की पराजय | अर्जुन और भीष्म का अद्भुत युद्ध | अर्जुन के साथ युद्ध में भीष्म का मूर्च्छित होना | अर्जुन और दुर्योधन का युद्ध | दुर्योधन का विकर्ण आदि योद्धाओं सहित रणभूमि से भागना | अर्जुन द्वारा समस्त कौरव दल की पराजय | कौरवों का स्वदेश को प्रस्थान | अर्जुन का विजयी होकर उत्तरकुमार के साथ राजधानी को प्रस्थान | विराट की उत्तरकुमार के विषय में चिन्ता | उत्तरकुमार का नगर में प्रवेश और प्रजा द्वारा उनका स्वागत | विराट द्वारा युधिष्ठिर का तिरस्कार और क्षमा-प्रार्थना | विराट का उत्तरकुमार से युद्ध का समाचार पूछना | विराट और उत्तरकुमार की विजय के विषय में बातचीत | अर्जुन का विराट को महाराज युधिष्ठिर का परिचय देना | विराट को अन्य पांडवों का परिचय प्राप्त होना | विराट का युधिष्ठिर को राज्य समर्पण और अर्जुन-उत्तरा विवाह का प्रस्ताव | अर्जुन द्वारा उत्तरा को पुत्रवधू के रूप में ग्रहण करना | अभिमन्यु और उत्तरा का विवाह | विराट पर्व श्रवण की महिमा

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः