मत्स्य तथा त्रिगर्त देश की सेनाओं का युद्ध

महाभारत विराट पर्व के गोहरण पर्व के अंतर्गत अध्याय 32 में मत्स्य तथा त्रिगर्त देश की सेनाओं के मध्य युद्ध का वर्णन हुआ है[1]-

युद्ध आरम्भ

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! नगर से निकलकर प्रहार करने में कुशल वे मत्स्यदेशीय वीर योद्धा अपनी सेना का व्यूह बनाकर चले और सूर्य के ढलते-ढलते उन्होंने त्रिगर्तों को पकड़ लिया। फिर तो क्रोध में भरकर युद्ध के लिये उन्तत्त हुए वे त्रिगर्त और मत्स्यदेश के महाबली वीर गौओं को ले जाने की इच्छा से एक दूसरे को लक्ष्य करके गर्जना करने लगे। हाथियों पर चढ़कर उन्हें चलाने में कुशल श्रेष्ठ महावतों द्वारा तोमरों और अंकुशों की मार से आगे बढ़ाये हुए भयंकर और मतवाले गजराज दोनों ओर से एक दूसरे पर टूट पड़े। परस्पर शस्त्रों का प्रहार करने वाले हाथी सवारों का वह कोलाहल पूर्ण भयंकर युद्ध रोंगटे खड़े कर देने वाला एवं महासंहारकारी था। राजन्! सूर्य पश्चिम की ओर ढल रहे थे। उस समय पैदल, रथी, हाथी सवार तथा घुड़सवारों के समूह से भरा हुआ वह युद्ध देवासुर संग्राम के समान हो रहा था। एक-दूसरे पर धावा बोलकर आपस में मार-काट मचाने वाले उन सैनिकों के पदाघात से इतनी धूल उड़ी कि कुछ भी सूझ नहीं पड़ता था। सेना की धूल से आच्छादित होकर उड़ते हुए पक्षी भी भूमि पर गिर जाते थे। दोनों ओर से छूटे हुए बाणों [2] सूर्य देव का दीखना बंद हो गया था। बाणों के कारण अप्तरिक्ष मानो जुगनुओं से भर गया हो, इस प्रकार चकमक हो रहा था। दाँये-बाँये बाण माने वाले वे विश्वविख्यशत धनुर्धर वीर जब घायल होकर गिरते थे, उस समय उनके सुवर्ण की पीठ वाले धनुष दूसरों के हाथ में चले जाते थे।। रथी रथियों और पैदल पैदलों से भिड़े हुए थे।

घुड़सवार घुड़सवारों से और गजारोही गजारोहियों से लड़ रहे थे। राजन! वे सब क्रोध में भरकर उस युद्ध में एक दूसरे पर तलवार, पट्टिश, प्रास, शक्ति और तोमर आदि अस्त्र-शस्त्रों से प्रहार कर रहे थे; किंतु परिघ के समान प्रचण्ड भुजदण्ड वाले वे शूरवीर परस्पर क्रोध पूर्वक प्रहार करने पर भी समना करने वाले वीरों को पीछे नहीं हटा पाते थे। बात की बात में, कुण्डलों सहित कटे हुए कितने ही मस्तक धूल में लोटने लगे। किसी की नाक बड़ी सुन्दर थी, परन्तु ऊपर का ओठ कट गया था। कोई अलंकारों से अलंकृत था, किंतु उसका केशभाग कटकर उड़ गया था। उस महासंग्राम में बहुत से क्षत्रिय वीरों के शरीर, जो शालवृक्ष की शाखाओं के समान विशाल एवं हृष्ट-पुष्ट थे, छिन्न-भिन्न होकर टुकड़े-टुकड़े दिखायी देने लगे। सर्प के शरीर की भाँति सुशोभित चन्दन चर्चित भुजाओं तथा कुण्डलमण्डित मस्तकों से पटी हुई रणभूमि अपूर्व शोभा धारण कर रही थी। वहाँ रथियों का रथियों से, घुड़सवारों का घुड़सवारों से और पैदल योद्धाओं कसा पैदलों से घमासान यंद्ध होने लगा। सब ओर रक्त की धारा बह चली और उसमें सन कर धरती की धूल शान्त हो गयी। युद्ध करने वाले वीरों को मूर्च्छा आने लगी। उनमें मर्यादाशून्य भयंकर युद्ध छिड़ गया।

पाण्डवों द्वारा राजा विराट के लिए युद्ध करना

पाण्डुनन्दन धर्मात्मा युधिष्ठिर ने भी भाइयों सहित व्यूह रचना करके [[विराट|राजा विराट] के लिये त्रिगर्तों के साथ युद्ध किया। उन्होंने अपने आपको श्येन (बाज) पक्षी के रूप में उपस्थित करके उसकी चोंच का स्थान ग्रहण किया। नकुल और सहदेव दोनों पंखों के रूप में हो गये। भीमसेन पूँछ के स्थान मे हुए। कुंतीपुत्र युधिष्ठिर ने शत्रुओं के एक सहस्र सैनिकों का संहार कर डाला। सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ वीर भीमसेन वे अत्यन्त कुपित हो दो हजार रथियों को परलोक पहुँचा दिया। नकुल ने तीव सौ और सहदेव ने चार सौ सैनिकों को मार डाला। आकाशचारी पक्षी भी बाण समूहों से अत्यन्त उद्विग्न होकर इधर-उधर बैठ गये। उनका आकाश में उड़ना और दूर तक देखना भी बंद हो गया। परिघ की सी मोटी बाँहों वाले सूरमां कुपित हो एक दूसरे पर घातक प्रहार करते हुए भी सच्चे शूरवीरों को युद्ध से विमुख नहीं कर पाते थे। इस प्रकार युद्ध करते-करते शतानीक सौ तथा विशालाक्ष (मदिराक्ष) चार सौ योद्धाओं को मारकर उनकी भारी सेना में घुस गये। वे दोनों महारथी थे। उस विशालना में घुसे हुए और अत्यन्त क्रुद्ध हुए उन बलवान एवं मनस्वी वीरों ने उस सारी सेना को मोहित कर दिया। वे दोनों उन त्रिगर्त सैनिकों से एक दूसरे के केश पकड़-पकड़ तथा रथों पर बैठे हुए रथियों को गिरा-गिराकर युद्ध करने लगे। फिर उन दोनों ने त्रिगर्तों की रथसेना को लक्ष्य बनाकर उसमें प्रवेश किया।

सूर्यदत्त ने आगे की ओर से आक्रमण किया और मदिराक्ष ने पीछे की ओर से। रथियों में श्रेष्ठ राजा विराट रथ के द्वारा विविध मार्गों से चलते- अनेक प्रकार के रणकौशल दिखाते हुए उस युद्ध में त्रिगर्तों के पाँच सौ रथी, आयी सौ घुड़सवार तथा पाँच महारथियों को मार गिराने के पश्चात स्वर्णभूषित रथ पर बैठे हुए सुशर्मा पर धावा किया। वे दोनों महान बलवान और महामनस्वी वीर गर्जते हुए एक दूसरे से इस प्रकार भिड़े, मानो गोशाला में दो साँड़ लड़ रहे हों। त्रिगर्तराज सुशर्मा पर युद्ध का घोर उन्माद छाया हुआ था। उस नरश्रेष्ठ वीर ने राजा विराट का द्वैरथ युद्ध के द्वारा सामना किया। क्रोध में भरे हुए वे दोनों रथी अपना-अपना रथ बढ़कर निकट आ गये और शीघ्रतापूर्वक एक दूसरे पर बाणों की झड़ी लगाने लगे, मानो दो मेघ जल की धाराएँ बरसा रहे हों। दोनों का एक दूसरे के प्रति क्रोध और अमर्ष बढ़ा हुआ था। दोनों ही अस्त्रविद्या में निपुण थे और दोनों ने ही तलवार, शक्ति तथा गदा भी ले रक्खी थी। उस समय दोनों तीखे बाणों से परस्पर प्रहार करते हुए रणभूमि में विचरने लगे। इसी समय राजा विराट ने सुशर्मा को दस बाणों से बींध डाला और पाँच-पाँच बाणों से उसके चारों घोड़ों को भी घायल कर दिया। इसी प्रकार महान अस्त्रवेत्ता सुशर्मा ने भी रणोन्मत्त होकर पचास तीखे बाणो से मत्स्यराज विराट को बींध डाला। महाराज! तदनन्तर सैनिकों के पैरों से इतनी धूल उड़ी कि मत्स्यनरेश तथा सुशर्मा दोनों की सेनाएँ उससे आचछादित हो गयीं और एक दूसरे के विषय में यह भी न जान सकी कि कौन कहाँ क्या कर रहा है?[3]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत विराट पर्व अध्याय 32 श्लोक 1-16
  2. द्वारा आकाश खचाखच भर जाने के कारण
  3. महाभारत विराट पर्व अध्याय 32 श्लोक 17-30

संबंधित लेख

महाभारत विराट पर्व में उल्लेखित कथाएँ


पांडवप्रवेश पर्व
विराटनगर में अज्ञातवास करने हेतु पांडवों की गुप्त मंत्रणा | अज्ञातवास हेतु युधिष्ठिर द्वारा अपने भावी कार्यक्रम का दिग्दर्शन | भीमसेन और अर्जुन द्वारा अज्ञातवास हेतु अपने अनुकूल कार्यों का वर्णन | नकुल, सहदेव और द्रौपदी द्वारा अज्ञातवास हेतु अपने कर्तव्यों का दिग्दर्शन | धौम्य द्वारा पांडवों को राजा के यहाँ रहने का ढंग बताना | पांडवों का श्मशान में शमी वृक्ष पर अपने अस्त्र-शस्त्र रखना | युधिष्ठिर द्वारा दुर्गा देवी की स्तुति | युधिष्ठिर का राजसभा में राजा विराट से मिलना | युधिष्ठिर का विराट के यहाँ निवास पाना | भीमसेन का विराट की सभा में प्रवेश और राजा द्वारा उनको आश्वासन | द्रौपदी का सैरन्ध्री के वेश में रानी सुदेष्णा से वार्तालाप | द्रौपदी का रानी सुदेष्णा के यहाँ निवास पाना | सहदेव की विराट के यहाँ गौशाला में नियुक्ति | अर्जुन की विराट के यहाँ नृत्य प्रशिक्षक के पद पर नियुक्ति | नकुल का विराट के अश्वों की देखरेख में नियुक्त होना
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