महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
27.श्रीकृष्ण की प्रतिज्ञा
"संसार में जो बिलकुल ही कमज़ोर होते हैं वे भी अपनी स्त्री का बचाव किसी न किसी प्रकार अवश्य कर लेते हैं, किन्तु राजाधिराज पाण्डु की बहू और वीर पांडवों की पत्नी होकर भी मैं अनाथिनी सी अपमानित होती रही और किसी ने चूं तक न की! दुष्टों ने मुझे बाल पकड़कर खींचा। जिस पापी दुर्योधन की आज्ञा से ये घोर कर्म हुए वह अब तक जीवित है और उस पापी की तरफ किसी ने उंगली तक नही उठाई। इस तरह अपमानित होने के बाद तो मेरा ही जीना बेकार है। मधुसूदन, मेरे न पति हैं, न पुत्र, न बंधु ही। मेरा कोई नहीं रहा और आप भी मेरे न रहे!" यह कहते-कहते द्रौपदी के कोमल होंठ फड़कने लगे। उसके शब्द-शब्द से मानो चिनगारियां निकल रही थीं। बड़ी-बड़ी आंखों से गरम-गरम आंसुओं की धारा बहने लगी और कलेजा मुंह को आने लगा। वह आगे न बोल सकी। इस प्रकार करुण स्वर में विलाप करती हुई द्रौपदी को श्रीकृष्ण ने बहुत समझाया और धीरज बंधाया। वह बोले- "बहन द्रौपदी! जिन्होंने तुम्हारा अपमान किया है, उन सबकी लाशें युद्ध के मैदान में खून से लथपथ होकर पड़ेंगी। तुम शोक न करो। मैं वचन देता हूँ कि पांडवों की हर प्रकार से सहायता करूंगा। यह भी निश्चय मानो कि तुम साम्राज्ञी के पद को फिर सुशोभित करोगी। चाहे आकाश टूटकर गिर जाये, चाहे हिमालय फटकर बिखर जाये, चाहे पृथ्वी टुकड़ों में बंट जाये चाहे समुद्र का पानी सूख जाये मेरा यह वचन झूठा नहीं होगा।" श्रीकृष्ण की इस प्रतिज्ञा से द्रौपदी का मन खिल उठा। आंखों में आंसू भरे अर्जुन की ओर अर्थ-भरी दृष्टि से उसने देखा। अर्जुन भी द्रौपदी को सांत्वना देते हुए बोला- "हे सुनयने! श्रीकृष्ण का वचन झूठा नहीं हो सकता। वही होगा जो उन्होंने कहा है। तुम धीरज धरो।" धृष्टद्युम्न ने भी बहन को सांत्वना दी और समझाते हुए कहा कि श्रीकृष्ण और अर्जुन की प्रतिज्ञाएं अवश्य पूरी होंगी। उसने कहा कि द्रोणाचार्य को वह स्वयं, भीष्म को शिखण्डी, दुर्योधन को भीमसेन और सूत-पुत्र कर्ण को अर्जुन लड़ाई के मैदान में मौत के घाट उतारेंगे। श्रीकृष्ण ने कहा- "मैं द्वारका में नहीं था। यदि होता तो चौसर का यह खेल ही नहीं होने देता। धृतराष्ट्र के न बुलाने पर भी मैं सभा में पहुँच जाता और भीष्म, द्रोण जैसे बुजुर्गों को उचित ढंग से समझा-बुझाकर इस नाशकारी खेल को रुकवा देता। मुझे शाल्व से लड़ने के लिए द्वारका पर जबरदस्त घेरा डाल दिया था। हस्तिनापुर से द्वारका जाने पर मुझे इसका पता चला तो मैने शाल्व का पीछा किया और उसके राज्य पर चढ़ाई कर दी। शाल्व को मौत के घाट उतारकर द्वारका लौटने को ही था कि रास्ते में हस्तिनापुर में हुए इस अनर्थ की खबर मुझे मिली। बस रास्ते में से ही तुम लोगों से मिलने चला आया। जैसे बांध के टूट जाने पर जल को रोका नहीं जा सकता, ठीक उसी तरह तुम्हारे इस दु:ख को अभी तुरन्त तो पूरा करना संभव नहीं है लेकिन वह दूर तो करना ही है।" इसके बाद श्रीकृष्ण पांडवों से विदा हुए। साथ में अर्जुन की पत्नी सुभद्रा और उसके पुत्र अभिमन्यु को भी वह द्वारकापुरी लेते गये। द्रौपदी के पुत्रों को लेकर धृष्टद्युम्न पांचाल देश चला गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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