महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
15.बकासुर-वध
माता कुन्ती के साथ पाँचों पांडव एकचक्रा नगरी में भिक्षा मांगकर अपनी गुजर करके दिन बिताने लगे। ब्राह्मणों के घरों से भिक्षा के लिए जब पांचों भाई निकल जाते तो कुन्ती का जी बड़ा बैचेन हो उठता। वह बड़ी चिंता से उनकी बाट जोहती रहती। उनके लौटने में जरा भी देर हो जाती कि कुन्ती के मन में तरह-तरह की आशंकाएं उठने लगती। पांचों भाई भिक्षा में जितना भोजन लाते, कुन्ती उसके दो हिस्से कर देती। एक हिस्सा भीमसेन को दे देती और बाकी आधे में से पांच हिस्से करके चारों बेटे और खुद खा लेती थी। तिस पर भी भीमसेन की भूख मिटती न थी। वह तो भूखा ही रह जाया करता था। भीमसेन वायुदेव का अंशावतार था। इसलिये उसमें जितनी अमानुषिक ताकत थी,उतनी ही अमानुषिक भूख भी थी। यही कारण था कि उसको लोग 'वृकोदर' भी कहते थे। वृकोदर का मतलब हैं भेड़िये-जैसे पेटवाला। भेड़िये का पेट देखने में छोटा होने पर भी मुश्किल से भरता हैं। भीमसेन के पेट का भी यही हाल था। एकचक्रा नगरी में भिक्षा मांगने से जो थोड़ा-बहुत अन्न मिल जाता था,उससे बेचारे भीम को भला क्या संतोष हो सकता था। हमेशा ही भूखा रहने के कारण वह दिन-पर-दिन दुबला होने लगा और उसका शरीर पीला पड़ने लगा। भीमसेन का यह हाल देखकर कुन्ती और युधिष्ठिर बड़े चिंतित रहने लगे। जब थोड़े-से भोजन से पेट न भरने लगा तो भीमसेन ने कुछ दिनों से एक कुम्हार से दोस्ती कर ली थी। उसे मिट्टी वगैरहा खोदने में मदद देकर खुश कर दिया। कुम्हार भीम से बड़ा खुश हुआ और एक बड़ी भारी हांडी बनाकर दी। भीम उसी हांडी को लेकर भिक्षा के लिए निकलता। उसका विशाल शरीर और उसकी वह विलक्षण हांडी देखकर बच्चे तो हंसते-हंसते लोट-पोट हो जाते। एक दिन चारों भाई भिक्षा के लिये गये। अकेला-अकेला भीमसेन माता कुन्ती के साथ घर पर रहा। इतने में ब्राह्मण के घर के भीतर से बिलख-बिलख कर रोने की आवाज आई। ऐसा मालूम होता था कि मानो कोई मर गया हो। कुन्ती का जी भर आया। वह इस दुःख का कारण जानने की इच्छा से घर के भीतर गई। अन्दर जाकर देखा कि ब्राह्मण और उसकी पत्नी आंखों में आंसू भरे सिसकियां लेते हुए एक-दूसरे से बातें कर रहे हैं। ब्राह्मण बड़े दुःखी हृदय से अपनी पत्नी से कह रहा था- "अभागिनी, कितनी ही बार मैंने तुझे समझाया कि इस अंधेर नगरी को छोड़कर कहीं और चले जायें,पर तुमने न माना। कहती रहीं कि यहीं पैदा हुई, यही पली तो यहीं रहूंगी। मां-बाप तथा भाई-बन्धुओं का स्वर्गवास हो जाने पर भी यही हठ करती रही कि यह मेरे मां-बाप तथा दादे का गाँव है, यहीं रहूंगी। बोलो, अब क्या कहती हो? फिर तुम मेरे धर्म-कर्म की संगिनी हो, मेरी संतान की माँ और मेरी पत्नी हो। मेरे लिए भी तुम माँ-समान हो और मित्र भी हो। मेरा जीवन सर्वस्व तुम्हीं हो। कैसे तुम्हें मृत्यु में भेजकर अकेले जिऊँ?" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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