महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
37.‘मैं बगुला नहीं हूं’
पांडवों के वनवास के समय एक बार मार्कण्डेय मुनि पधारे। इस अवसर पर बातचीत के दौरान युधिष्ठिर स्त्रियों के गुणों की प्रशंसा करते हुए बोले- "स्त्रियों की सहनशीलता और सतीत्व से बढ़कर आश्चर्य की बात संसार में और क्या हो सकती है? बच्चे को जन्म देने से पहले स्त्री को कितना असह्य कष्ट उठाना पड़ता है? दस महीने तक वह बच्चे को अपनी कोख में पालती है, अपने प्राणों को जोखिम में डालकर, अवर्णनीय पीड़ा सहकर बच्चे को जन्म देती है। उसके बाद कितने प्रेम से उस बच्चे को पालती है। उसे सदा यही चिन्ता लगी रहती है कि मेरा बच्चा कैसा होगा! पति के अत्याचार होने पर भी, उसके घृणा करने पर भी, स्त्री उसके सारे अत्याचार चुपचाप सह लेती है और उसके प्रति अपने मन की श्रद्धा कभी कम नहीं होने देती। यह एक आश्चर्यजनक बात ही है।" यह सुनकर मार्कण्डेय मुनि ने युधिष्ठिर को नीचे लिखी कथा सुनाई- कौशिक नाम के एक ब्राह्मण थे। ब्रह्मचर्य-व्रत पर वह अटल थे। एक दिन वह पेड़ की छांह में बैठे हुए वेद-पाठ कर रहे थे कि इतने में उनके सिर पर किसी पंछी ने बीट कर दी। कौशिक ने ऊपर देखा तो पेड़ की डाल पर बगुला बैठा दिखाई दिया। ब्राह्मण ने सोचा, इसी बगुले की यह करतूत है। उन्हें बड़ा क्रोध आया। उनकी क्रोध भरी दृष्टि बगुले पर पड़ते ही वह तत्काल भस्म होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। बगुले के मृत शरीर को देखकर ब्राह्मण का मन उद्विग्न हो उठा। उन्हें बड़ा पछतावा होने लगा। मन की भावनाओं के कार्यरूप में परिणत होने के लिये कितने ही बाहरी कारणों की आवश्यकता पड़ती है। किन्तु बाहरी कारण भावनाओं का हर वक्त साथ नहीं देते। इसी कारण हम कितनी ही बुराइयों से अक्सर बच जाते हैं। यदि यह बात न हो, यदि मन की सारी भावनाएं तत्काल ही कार्यरूप में परिणत होने लग जायें तो फिर इस संसार के कष्टों को कोई सहन न कर सके। कौशिक बड़े पछताये कि हम निर्दोष पंछी को मैंने मार दिया। क्रोध में आकर मैंने जो भावना की उसने यह क्या अनर्थ कर दिया; यह सोचकर उन्हें बड़ा शोक हुआ। इतने में भिक्षा का समय हो आया और वह भिक्षा के लिए चल पड़े। एक द्वार पर भिक्षा के लिए वह खड़े हुए। घर की मालकिन अंदर बरतन साफ कर रही थी। कौशिक ने सोचा, काम पूरा होने पर मेरी तरफ ध्यान देगी। किन्तु इतने में स्त्री का पति, जो किसी काम पर बाहर गया हुआ था, लौट आया। आते ही बोला- "बड़ी भूख लगी है; खाना परोसो।" पति की बात सुनते ही गृह पत्नी कौशिक की परवाह न करके अपने पति की सेवा टहल मे लग गई। पानी लाकर उसने पति के पांव धोये, आसन बिछाया, थाली परोसी और पंखा झलने लगी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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