महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
27.श्रीकृष्ण की प्रतिज्ञा
शाल्व शिशुपाल का मित्र था। जब उसे खबर मिली कि श्रीकृष्ण के हाथों शिशुपाल मारा गया है तो उससे न रहा गया। श्रीकृष्ण पर उसे असीम क्रोध हो आया। तत्काल एक भारी सेना इकट्ठी करके द्वारका पर चढ़ाई कर दी और नगर को चारों तरफ से घेर लिया। श्रीकृष्ण इन्द्रप्रस्थ से लौटे नहीं थे। इस कारण उनकी अनुपस्थिति में राजा उग्रसेन ने द्वारका का प्रबन्ध किया। महाभारत में द्वारका के घेरे जाने का जो वर्णन है, उसे पढ़ते हुए ऐसा भ्रम हो जाता है कि कहीं हम आजकल की लड़ाई का तो वर्णन नहीं पढ़ रहे हैं। उन दिनों के युद्ध की कार्रवाइयां और तरीके ठीक आजकल के से मालूम होते हैं। द्वारका का किलेबन्द नगर एक टापू पर बसा था। शत्रु के आक्रमण से बचाव के लिए हर प्रकार का बंदोबस्त किया गया था। दुर्ग की बनावट ही ऐसी थी कि उसमें हजारों सैनिक सुरक्षित रहकर लड़ सकते थे। दुर्ग पर कई यंत्र लगे हुए थे। जमीन खोदकर कई सुरंगी रास्ते बनाये थे। किले के अन्दर तरह-तरह के हथियारों, पत्थर फेंकनेवाली कलों, यहाँ तक कि बारूद के भी 'गोदाम' भरे पड़े थे। सैनिकों के कितने ही दल दुर्ग के अन्दर पहले से ही तैयार रक्खे गये थे और कितने ही जवान नये सिरे से भर्ती किये गये थे। शत्रु के घेरा डालते ही उग्रसेन ने डौंडी पिटवा दी कि नगर के अन्दर ताड़ी जैसी नशीली चीजों का सेवन करना मना है। साथ ही नट-नटनियों और तमाशा दिखानेवालों को भी नगर के बाहर निकाल दिया गया। जहाँ कहीं भी समुद्र पार करने के लिए पुल बने थे उन्हें तोड़ दिया गया। जहाज द्वारा किले की चारों ओर की खाइयों में लोहे की सूलियां गाड़ दी गई। किले की दीवारों की मरम्मत करा दी गई। रास्तों पर जहाँ-तहाँ कंटीले तारों की बाड़ लगा दी गई। वैसे भी द्वारका नगरी दुर्गम थी। पर शाल्व के घेरा डालने के बाद उसको और भी सुरक्षित करने का प्रबन्ध कर दिया गया। लोगों के आने-जाने पर सख्त पाबन्दियां लगा दी गईं। मुहर लगे हुए अनुमति पत्रों के बगैर शहर से न कोई बाहर जा सकता था, न अंदर आ सकता था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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