महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
34.विद्या और विनय
एक बार रैभ्य मुनि के शिष्य राज बृहद्युम्न ने एक भारी यज्ञ किया। यज्ञ करने के लिए राजा ने आचार्य रैभ्य से अपने दोनों पुत्रों को भेजने का अनुरोध किया। रैभ्य ने पुत्रों को जाने की अनुमति दे दी। परावसु और अर्वावसु दोनों प्रसन्न होकर बृहद्युम्न की राजधानी में गये। यज्ञ की तैयारियां हो रही थीं इसी बीच एक दिन परावसु के जी में आया कि जरा पत्नी से मिल आऊँ। रात-भर चलते-चलते सुबह पौ फटने से पहले ही वह आश्रम में आ पहुँचे। आश्रम के नजदीक ही झाड़ी के पास परावसु ने एक हिंसक पशु-सा कुछ देखा और भय के मारे उस पर हथियार चला दिया। पर उसे यह देखकर महान दु:ख हुआ कि उसने हिंसक पशु की चर्म ओढ़े अपने पिता रैभ्य मुनि को ही मार डाला है। धोखे में पिता को मारने के कारण परावसु को बड़ा दु:ख हुआ; पर भरद्वाज के शाप की याद करके मन को समझा दिया। पिता का दाह-संस्कार जल्दी से करके वह नगर को लौटा और भाई अर्वावसु को सारा हाल कहा। वह बोले- "मेरे इस पाप कृत्य से राजा के यज्ञ-कार्य में विघ्न न पड़े, इसलिए मैं अकेला ही यज्ञ का काम चला लूंगा और तुम जाकर मेरी जगह ब्रह्महत्या का प्रायश्चित कर आओ। शास्त्रों में कहा है कि अनजाने में की गई हत्या का प्रायश्चित हो सकता है। सो तुम मेरे यज्ञ कार्य न चला सकोगे इसलिए मैं यह अनुरोध कर रहा हूँ।" धर्मात्मा अर्वावसु ने यह बात मान ली और बोले- "ठीक है, राजा का यज्ञ आदि सुचारू रूप से करा दीजिए। मैं अकेले यह काम नहीं संभाल सकूंगा। आपकी जगह ब्रह्महत्या का प्रायश्चित मैं कर दूंगा और व्रत समाप्त करके लौट आऊंगा।" यह कहकर अर्वावसु वन में चले गये और विधिवत व्रत समाप्त होने पर वह वापस यज्ञशाला में आ गये। पर परावसु ने हत्या तो खुद की थी और प्रायश्चित अपने भाई से करवाया था, इस कारण उनका ब्रह्महत्या का दोष न धुल सका। उसके फलस्वरूप उसके मन में अनेक कुविचार उठने लगे। जब उन्होंने अर्वावसु को यज्ञशाला में आते देखा तो उनके मन में ईर्ष्या पैदा हो गई। अर्वावसु के मुख-मंडल से विशुद्ध ब्रह्म-तेज की आभा फूट पड़ी थी। परावसु यह न देख सके। अपने को वह हीन अनुभव करने लगे और डाह तो उनके मन में पैदा हो ही गया था; उन्होंने अर्वावसु पर दोषारोपण करके उन्हें अपमानित करने का विचार किया। वह चिल्लाकर राजा बृहद्युम्न से कहने लगे- "ब्रह्महत्या करने-वाला यह घातक इस पवित्र यज्ञशाला में कैसे प्रवेश कर रहा है?" राजा ने जब यह सुना तो अपने सेवकों को आज्ञा दी कि अर्वावसु को यज्ञशाला से बाहर कर दें। अर्वावसु को यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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