महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
63.आशीर्वाद-प्राप्ति
सब लोग इसी की राह देख रहे थे कि कब युद्ध शुरू हो; पर एकाएक पांडव -सेना के बीच में हलचल मच गई। देखते क्या हैं कि धर्मराज युधिष्ठिर ने अचानक अपना कवच और धनुष-बाण उतारकर रथ पर रख दिया है और रथ से उतरकर हाथ जोड़े कौरव -सेना की हथियार-बंद सैनिक पंक्तियों को चीरते हुए भीष्म की ओर पैदल जा रहे हैं। बिना सूचना दिये उनको इस प्रकार जाते देखकर दोनों ही पक्ष वाले अचंभे में आ गये। अर्जुन तुरंत रथ से कूद पड़ा और युधिष्ठिर के पीछे कौरव-सेना में घुस गया। दूसरे, पांडव और श्रीकृष्ण भी उनके साथ ही हो लिये। उन्हें यह डर हो रहा था कि अपनी स्वाभाविक शांतिप्रियता के आवेश में युधिष्ठिर कहीं इस घड़ी युद्ध न करने की या युद्ध बंद करने की न ठान लें। अर्जुन लपककर युधिष्ठिर के पास जा पहुँचा और उनसे बोला– "महाराज, आप इस हालत में हमें छोड़कर कहाँ जा रहे हैं? आपने कवच और शास्त्र क्यों उतार डाले? शत्रु तो कवच और अस्त्र-शस्त्रों से सज्जित खड़े हैं? और बस, अब युद्ध शुरू ही होने वाला है। आखिर आपकी मंशा क्या है?" पर युधिष्ठिर को तो कुछ सुनाई नहीं देता है। वह अपनी ही धुन में चले जा रहे थे। अर्जुन की बातें उन्होंने सुनी ही नहीं। वह आगे बढ़ते चले गये। इतने में श्रीकृष्ण बोले –"अर्जुन, मैं समझ गया कि महाराज युधिष्ठिर की इच्छा क्या है। वह युद्ध होने से पहले पितामह भीष्म आदि बड़े-बूढ़ों की अनुमति एवं आशीर्वाद प्राप्त करने के लिये इस प्रकार नि:शस्त्र होकर जा रहे हैं, क्योंकि बिना बड़े-बूढों की आज्ञा लिये युद्ध करना अनुचित माना जाता हे। यही कारण है कि धर्मराज ने यह न्यायोचित और विजय प्राप्त करने वाली नीति अख्तियार की। धर्मराज का उद्देश्य अच्छा ही है। "उधर दुर्योधन की सेना के वीरों ने जब देखा कि युधिष्ठिर बाहें ऊपर उठाए और हाथ जोड़े चले आ रहे हैं तो समझा कि वह संधि करने के उद्देश्य से ही आ रहे होंगे। यह सोचकर किसी ने तो उन्हें धिक्कारा। कुछ ने आनंद का अनुभव किया और आपस में कहने लगे- "वह देखो! राजा युधिष्ठिर हाथ जोड़े नि:शस्त्र होकर चले आ रहे हैं। हमारी भारी सेना देखकर वह डर गये और अब हमसे सुलह करने आ रहे हैं। धिक्कार है ऐसे डरपोकों को, जो सारे क्षत्रिय-कुल के अपमान का कारण बन रहे हैं।" भीष्म बोले –"बेटा युधिष्ठिर, मुझे तुमसे यही आशा थी। तुमने भरत-वंश की मर्यादा रख ली। तुमसे मैं बहुत ही प्रसन्न हुआ। मैं स्वतंत्र नहीं हूँ – विवश होकर मुझे तुम्हारे विपक्ष में रहना पड़ रहा है। फिर भी मेरी यही कामना है कि रण में विजय तुम्हारी हो। जाओ, हिम्मत से युद्ध करो- विजय तुम्हारी ही होगी। तुम कभी परास्त नहीं हो सकते। भीष्म की आज्ञा और आशीर्वाद प्राप्त कर लेने के बाद युधिष्ठिर आचार्य द्रोण के पास गये और परिक्रमा करके उनको दंडवत किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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