महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
96.सांत्वना कौन दे?
संजय ने दुःखी महाराज धृतराष्ट्र से कहा- "महाराज, दूसरे के सांत्वना देने मात्र से दुःखी का दुःख दूर नहीं हो सकता, यह तो अपने मन को दृढ़ करने से ही होगा। अतः आप धीरज धरें और शांत हो। जिन असंख्य राजा-महाराजाओं ने आपके पुत्र की खातिर युद्ध में प्राण दिये हैं उनका तथा दूसरे मृत बन्धु-बांधवों का अन्तिम संस्कार भी तो आपको करना है।" धर्मात्मा विदुर ने भी धृतराष्ट्र को सांत्वना देने की चेष्टा की। वह बोले- "महाराज! युद्ध में जिनकी वीरोचित मृत्यु हुई है उनके बारे में तो शोक करना ही नहीं चाहिए। आत्मा अजर एवं अमर है। आत्माओं में न कोई भाई है, न बन्धु। उसमें आपसी नाता-रिश्ता कुछ नहीं होता। आपके जो पुत्र मर गये हैं, उनका अब आपके साथ कोई वास्तविक नाता नहीं रहा। जब तक कोई जीवित रहता है तभी तक उसका रिश्ता माना जाता है। परंतु देहावसान होने के बाद कोई किसी का नहीं रहता। सभी प्राणी किसी अदृश्य स्थान से आकर संसार में प्रकट होते हैं और फिर किसी अदृश्य लोक में जाकर लीन हो जाते है। जीवन का यही नियम है, इसलिए रोना-कलपना व्यर्थ है। रणभूमि में लड़ते हुए जो प्राण त्यागते हैं वे देवराज इंद्र के अतिथि बनकर देवलोक में निवास करते हैं। इसलिये महाराज, बीती बातों पर विलाप करने से न तो आपको धर्म प्राप्त होगा, न अर्थ, न काम ही। मोक्ष की तो बात ही दूर है। अतः आप शोक करना छोड़ दे।" इस तरह विदुर ने हर प्रकार से धृतराष्ट्र के व्यथित हदय को शांत करने की चेष्टा की। विदुर धृतराष्ट्र को सांत्वना दे रहे थे कि इतने में भगवान व्यास भी वहाँ आ पहुँचे और धृतराष्ट्र को आश्वासन देने लगे। वह बोले- "बेटा, मैं कोई ऐसी नई बात तो तुम्हें बताने वाला नहीं हूं, जो विदित न हो। तुम तो जानते ही हो कि यह जीवन अनित्य है और पृथ्वी का भार उतारने के लिये ही यह युद्ध हुआ था। मैंने स्वयं भगवान विष्णु की दिव्यवाणी से यह बात जानी है। इस कारण इस युद्ध को टाला नहीं जा सकता था। अतः अब धीरज धारण करो और युधिष्ठिर को ही अपना पुत्र समझो तथा उसको स्नेह दान करते हुए सुखपूर्वक रहो।" इतना कह व्यासदेव अन्तर्धान हो गये। कुछ देर बाद धर्मराज युधिष्ठिर रोती-बिलखती हुई स्त्रियों के समूह को पार करते हुए भाइयों व श्रीकृष्ण सहित धृतराष्ट्र के पास आये व नम्रतापूर्वक हाथ जोड़े खड़े रहे। शोक-विह्वल राजा धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर को गले लगाया; पर वह आलिंगन स्नेहपूर्ण न था। इसके बाद धृतराष्ट्र ने भीम को अपने पास बुलाया। धृतराष्ट्र के हाव- भाव से श्रीकृष्ण ने अंदाजा लगाया कि इस समय धृतराष्ट्र पुत्र-शोक के कारण क्रोध में हैं। इसमे भीम को उनके पास भेजना ठीक न होगा। अत उन्होंने भीमसेन को तो एक तरफ हटा लिया और उसके स्थान पर लोहे की एक प्रतिमा अंधे राजा धृतराष्ट्र के आगे लाकर खड़ी कर दी। श्रीकृष्ण का भय सही साबित हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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