महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
56.शांतिदूत श्रीकृष्ण
शांति की बातचीत करने के उद्देश्य से श्रीकृष्ण हस्तिनापुर को गये। उनके साथ सात्यकि भी गये थे। प्रस्थान करने से पहले श्रीकृष्ण काफी देर तक पांडवों से चर्चा करते रहे। पांचों भाइयों ने शांति को ही पसंद किया, यहाँ तक कि वीर भीमसेन ने भी यही कहा कि युद्ध से सारे वंश का नाश हो जायेगा। हम सबके लिये संधि कर लेना ही श्रेयस्कर होगा। इससे यही सिद्ध होता है कि पराक्रमी और वीर लोग शांति की ही दुआ करते हैं। शांतिप्रियता कायरता नहीं हुआ करती। लेकिन द्रौपदी की राय कुछ और ही थी। दुर्योधन और उसके भाइयों के हाथों हुए अपमान को वह भूल न सकी। अपने बिखरे बालों को हाथ में लिये और शोक-विह्ल होकर वह श्रीकृष्ण के सामने खड़ी हो गई और बोली- "मधुसूदन! मेरे इन बिखरे केशों को तो जरा देखो। फिर जो कुछ उचित हो करना। अर्जुन और भीम भले ही युद्ध न करें, पर मेरे पिता, जो यद्यपि बूढ़े हैं, फिर भी वे मेरे पांचों छोटे-छोटे पुत्रों को साथ लेकर युद्ध के मैदान में कूद पड़ेंगे। अगर किसी कारणवश पिता जी भी युद्ध करने न आयें तो न सही, सुभद्रा का पुत्र अभिमन्यु तो है। उसी को अगुआ बनाकर मेरे पांचों बेटे कौरवों से लड़ेंगे। हृदय में प्रतिहिंसा की भीषण आग धुंआ दे रही है, उसे युधिष्ठिर की खातिर तेरह साल तक मैंने दबाये रक्खा-भड़कने न दिया। लेकिन अब मुझसे नहीं सहा जायेगा।" यह कहते-कहते द्रौपदी की आंखें डबडबा आईं। उसका गला रुंध गया। द्रौपदी को इस प्रकार दु:खी देखकर श्रीकृष्ण बोले- "रोओ मत, बहन कृष्णा! रोने का कोई कारण नहीं है। शांति-स्थापना की जो शर्तें मैं रक्खूंगा, उन्हें धृतराष्ट्र के बेटे मानेंगे नहीं, फलत: युद्ध होकर ही रहेगा। युद्ध-क्षेत्र में पड़ी कौरवों की लाशें कुत्तों और सियारों का आहार बनेंगी, यह बात निश्चित है। अब थोड़े ही दिन और रह गये हैं और तुम देखोगी कि तुम्हारे अपमान का बदला लिया जायेगा और तुम्हारी ही विजय होगी। तुम दु:खी न होओ।" इस प्रकार द्रौपदी को सांत्वना देकर श्रीकृष्ण विदा हुए। रास्ते में कुशस्थल नामक स्थान में वह एक रात विश्राम करने को ठहरे। हस्तिनापुर में जब यह खबर पहुँची कि श्रीकृष्ण पांडवों की ओर से दूत बनकर संधि चर्चा के लिये आ रहे हैं, तो सारे नगर में उत्कंठा ही बड़ी लहर दौड़ गई। धृतराष्ट्र ने आज्ञा दी कि नगर को खूब सजाया जाये। पुरवासियों ने द्वारिकाधीश के स्वागत की धूमधाम से तैयारियां कीं। दु:शासन का भवन दुर्योधन के भवन से अधिक उंचा और सुंदर था, इसलिये धृतराष्ट्र ने आज्ञा दी कि उसी भवन में सपरिवार श्रीकृष्ण को ठहराने का प्रबंध किया जाये। नगर के बाहर जिस रास्ते से श्रीकृष्ण का रथ आ रहा था, उधर स्थान-स्थान पर उनके विश्राम आदि के लिये सत्कार मंडप बनाये गये। इस बीच धृतराष्ट्र ने विदुर से भी सलाह की। कहा- "विदुर! वासुदेव के लिये हाथी, घोड़े, रथ आदि उपहार भेंट आदि करने का प्रबंध करो। और भी कई तरह के उपहार उन्हें भेंट किये जायें- ऐसी मेरी कामना है।" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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