महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
49.मंत्रणा
तेरहवां बरस पूरा होने पर पांडव विराट की राजधानी छोड़कर उपप्लव्य नामक नगर में, जो विराटराज ही के राज्य में था, जाकर रहने लगे। अज्ञातवास की अवधि पूरी हो चुकी थी, इसलिये पांचों भाई प्रकट रूप में रहने लगे। आगे का कार्यक्रम तय करने के लिये तथा सलाह आदि करने के लिये उन्होंने अपने भाई-बंधुओं एवं मित्रों को बुलाने को दूत भेजे। भाई बलराम, अर्जुन की पत्नी सुभद्रा तथा पुत्र अभिमन्यु और यदुवंश के कई वीरों को लेकर श्रीकृष्ण उपप्लव्य जा पहुँचे। उनके आगमन की खबर पाकर विराटराज और पांडवों ने शंख बजाकर उनका स्वागत किया। इंद्रसेन आदि राजा अपने-अपने रथों पर चढ़कर उपप्लव्य आ पहुँचे। काशिराज और वीर शैव्य भी अपनी दो अक्षौहिणी सेना के साथ आकर युधिष्ठिर के नगर में पहुँच गये। पांचालराज द्रुपद तीन अक्षौहिणी सेना लाये। उनके साथ, शिखंड़ी, द्रौपदी का भाई धृष्टद्युमन और द्रौपदी के पुत्र भी आ पहुँचे। और भी कितने ही राजा अपनी-अपनी सेनाओं को साथ लेकर पांडवों की सहायता के लिये आ गये। सबसे पहले शास्त्रोक्त विधि से अभिमन्यु के साथ उत्तरा का विवाह किया गया। इसके बाद विराटराज के सभा-भवन में सभी आगंतुक राजा मंत्रणा के लिये इकट्ठे हुए। विराट के पास श्रीकृष्ण और युधिष्ठिर बैठे। द्रुपद के पास बलराम और सात्यकि और भी कितने ही प्रतापी राजा सभा में विराजमान थे। सबके अपने-अपने आसन पर बैठ जाने पर सभा में श्रीकृष्ण उठे और बोले- "सम्मान्य बंधुओ और मित्रो! आप सब जानते ही हैं कि किस प्रकार युधिष्ठिर को कुचक्र में फंसाकर उनका राज्य छीन लिया गया, किस प्रकार पांडु -पुत्रों को अपना प्रण निभाने के लिये तेरह बरस तक दारुण दु:ख भोगना पड़ा और किस प्रकार इन दु:सह कठिनाइयों को झेलकर पांडवों ने अपनी प्रतिज्ञा सफलता के साथ पूरी की। अब हम सब यहाँ इसलिये इकट्ठे हुए हैं कि कुछ ऐसे उपाय सोचें, जो युधिष्ठिर और राजा दुर्योधन के लिये लाभप्रद हों, न्यायोचित हों और जिनसे पांडवों तथा कौरवों का सुयश बढ़े। युधिष्ठिर कोई भी ऐसी सलाह नहीं मानेंगे, जिससे धर्म की हानि हो और जो न्यायोचित न हो। यद्यपि धृतराष्ट्र के पुत्रों ने उन्हें धोखा दिया और तरह-तरह की यातनायें उन्हें पहुँचाईं, फिर भी युधिष्ठिर तो उनका भला ही चाहते हैं। आपको कौरवों के अन्यायों और युधिष्ठिर की न्यायप्रियता, दोनों पर ध्यान देना है। दोनों के भिन्न-भिन्न गुणों पर खूब सोच-विचार कर जो उचित लगे वही सलाह आपको देनी है। अभी तक इस बात का पता नहीं लग सका कि इस बारे में दुर्योधन का क्या इरादा है। पर मुझे तो सब मिलाकर संधि करना ही उचित प्रतीत होता है। जो राज्य युधिष्ठिर से छीना गया है वह उनको वापस मिल जाये तो पांडव शांत हो जायेंगे और दोनों में संधि हो सकती है। मेरी राय में इस बारे में दुर्योधन के साथ उचित रीति से बातचीत करके उसे समझाने के लिये एक ऐसे व्यक्ति को दूत बनाकर भेजना होगा जो सर्वथा योग्य हो और शीलवान भी।" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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