महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
86.कर्ण और भीम
युद्ध के मैदान में एक स्थान पर सात्यकि और भूरिश्रवा, दूसरे स्थान पर कर्ण और भीम और तीसेर स्थान पर अर्जुन और जयद्रथ के बीच ऐसा घोर संग्राम छिड़ा हुआ था कि जैसा किसी ने उसे समय तक न देखा था, न सुना था। द्रोणाचार्य पांडवों के हमलों की बाढ़ रोकते और उन पर जवाबी हमले करते हुए व्यूह के द्वार पर ही डटे रहे। थोड़े ही समय में जिस स्थान पर अर्जुन और जयद्रथ का युद्ध हो रहा था, दुर्योधन भी वहाँ आ पहुँचा मगर थोड़ी ही देर में बुरी तरह हारकर मैदान छोड़ भाग खड़ा हुआ। इस भाँति उस रोज कई मोरचों पर जोरों से युद्ध हो रहा था। दोनों पक्ष के लोगों को जहाँ आगे के शत्रु-सैन्य से लड़ना पड़ता था, वहाँ पिछली तरफ से भी शत्रु के आक्रमण को संभालना पड़ रहा था। युद्ध का कुछ निर्णय न होता देख दुर्योधन आचार्य द्रोण के पास आया और अपनी आदत के अनुसार उन्हें जली-कटी सुनाने लगा। "गुरुदेव! अर्जुन, भीम और सात्यकि हमारी सेना की परवा न करके आगे बढ़ आये हैं और अब सिंधुराज तक जा पहुँचे हैं। वही अर्जुन से भीषण युद्ध हो रहा है। आश्चर्य की बात है कि जिस व्यूह की रक्षा आप कर रहे हैं, वह इतनी सुगमता से कैसे तोड़ा जा सका? हमारे सारे मनसूबे मिट्टी में मिल गये। लोग मुझसे पूछते हैं कि वीर पराक्रमी और धनुर्विद्या के आचार्य द्रोणाचार्य ने इन नौसिखियों के हाथों कैसे ऐसी मुंह की खाई? मैं उन्हें कैसे समझाऊं? आपने मुझे कहीं का नहीं रखा। आपके होते हुए भी मैं अनाथ-सा हो रहा हूँ।" द्रोण ने सदा की भाँति उसे सांत्वना देते हुए कहा- "दुर्योधन, तुम तो सदा मेरी निंदा करते हो, वह न तो धर्म के अनुकूल है, न सच्चाई के ही। जो हुआ सो हुआ। अब उस पर सिर खपाने से फायदा? पिछले को भूलकर आगे के कामों पर विचार करो।" पर दुर्योधन का चित्त ठिकाने नहीं था। वह बोला- "जो कुछ करना-धरना है, उस पर आप ही भली-भाँति सोच-विचार लें और किसी निश्चय पर पहुँचें। इतना मैं कहे देता हूँ कि योजना जो भी बने, उसे तुरंत ही कार्यरूप में परिणत करना चाहिए।" द्रोण ने कहा- "बेटा दुर्योधन, सोचने की तो कई बातें हैं। यह बात सही है कि तीन महारथी हमें लांघकर आगे बढ़ गये हैं। परंतु उनके आगे बढ़ जाने से हम पर जितना खतरा आ सकता है, हमारे पीछे होने के कारण उन पर भी उतना ही खतरा हो सकता है। उनके आगे और पीछे, दोनों तरफ हमारी सेनाएं खड़ी हैं। इस दशा में कहना चाहिए कि उन पर ही खतरा अधिक है। इसलिये तुम्हें हिम्मत नहीं हारनी चाहिए। तुम तो जयद्रथ की सहायता को जाओ और वहाँ जो कुछ करना आवश्यक हो, वह करो। बेकार की चिंता करने से तो बेमौत मरना होता है। इससे कोई लाभ तो होता नहीं। मेरा तो यही पर रहना ठीक होगा। जब कभी तुम्हें कुमुक और युद्ध-सामग्री की जरूरत होगी, यहाँ से भेज दिया करूंगा। मुझे यहाँ पांचालों और पांडवों के हमले को रोकने के लिये मोरचे को संभाले रखना चाहिए।" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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