महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
31.ऋष्यश्रृंग
कुछ लोगों का ख्याल है कि बच्चों को विषय-सुख का जरा भी ज्ञान न होने दिया जाये तो वे पक्के ब्रह्मचारी बन सकते हैं। लेकिन यह गलत ख्याल है। इस ढंग से तो जिस किले का बचाव किया जाता है, वह सहज ही में दुश्मन के हाथ आ जाता है। इस पर प्रकाश डालने वाली बड़ी रोचक कथा महाभारत और रामायण में कही गई है। महाभारत के अनुसार लोमश ऋषि ने यह कथा पांडवों को विस्तारपूर्वक सुनाई- महर्षि विभाण्डक ब्रह्म के समान तेजस्वी थे। उनके पुत्र ऋष्यश्रृंग थे। अपने पिताजी के साथ वह वन में रहा करते थे। ऋष्यश्रृंग ने अपने पिता के सिवा और किसी मनुष्य को नहीं देखा था। स्त्रियों के अस्तित्व का उन्हें पता भी न था। इसी भाँति ऋष्यश्रृंग बचपन से विशुद्ध ब्रह्मचारी रहे। एक बार अंग देश में भारी अकाल पड़ा। बारिश न होने के कारण सारी फसले सूख गई। लोग भूख और प्यास के मारे तड़प-तड़प कर मरने लगे। चौपायों के भी कष्ट की सीमा न रही। अकाल को यों देश पर हावी होते देखकर अंग-नरेश रोमपाद बड़े चिंतित हुए। उन्होंने ब्राह्मणों से सलाह ली कि प्रजा का यह दु:ख कैसे दूर किया जाये। ब्राह्मणों ने कहा- "राजन! ऋष्यश्रृंग नाम के एक ऋषिकुमार हैं। ब्रह्मचर्य-व्रत पर अटल हैं, यहाँ तक कि उन्हें स्त्रियों के अस्तित्व तक का भी पता नहीं हैं। उन्हें अगर आप राजधानी में बुला सकें तो उन महातपस्वी के राजधानी में पदार्पण करते ही वर्षा होने लग जायेगी।" यह सुनकर राजा रोमपाद अपने मंत्रियों से सलाह करने लगे कि ऋषिकुमार ऋष्यश्रृंग को ऋषि विभाण्डक के आश्रम से राजधानी में कैसे बुलाया जाये! उनकी सलाह से राजा ने शहर की कुछ सुन्दरी वीरांगनाओं को बुलाकर आज्ञा दी कि वे वन में जाकर किसी-न-किसी उपाय से ऋषिकुमार को हर लावें। गणिकाएं बड़े असमंजस में पड़ गईं। राजाज्ञा को न मानना दण्ड को न्यौता देना था और अगर मानती हैं तो उधर ऋषि विभाण्डक के शाप का डर था। करे तो क्या करे! आखिर विवश होकर उन्हें राजा की आज्ञा माननी ही पड़ी। राजा ने काफी धन और साज-सामान देकर उन्हें विदा किया। वीरांगनाओं की इस टोली की नायिका बड़ी चतुर थी। उसने एक सुन्दर बजरा बनवाया। उसमें उसने एक छोटा-मोटा बगीचा भी लगा दिया। पेड़-पौधे, झाड़-झंखाड़ सब नकली थे, फिर भी देखने से जरा भी पता नहीं चलता था कि यह बागीचा नहीं, बजरा है। इस बागीचे के बीच में एक आश्रम बना दिया गया। जब सब तैयारियां हो चुकी तो बजरा चलाती हुई सब गणिकाएं विभाण्डक के आश्रम के नजदीक जा पहुँची। बजरा वहीं किनारे के पेड़ से खूब सटाकर बांध दिया। इसके बाद डरी और सहमी हुई वे ऋषि के पास जा पहुँची। ऋषि विभाण्डक उस समय आश्रम के अंदर नहीं थे। कहीं बाहर गये हुए थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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