महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
2.भीष्म-प्रतिज्ञा
तेजस्वी पुत्र को पाकर राजा प्रफुल्लित मन से नगर को लौटे। और देवव्रत राजकुमार के पद पर सुशोभित करने लगे। चार वर्ष बीत गये। एक दिन राजा शान्तनु यमुना-तट की तरफ घूमने गये तो वहाँ के वातावरण को अनैसर्गिक सुगन्ध से भरा पाया। उन्हें आश्चर्य हुआ, यह मनोहारिणी सुवास कहाँ से आ रही होगी। इस गंध का पता लगाने को जब वह यमुना-तट पर इधर-उधर खोज करने लगे तो सामने अप्सरा-सी सुन्दर एक तरुणी खड़ी दिखाई दी। उसी सुन्दरी की कमनीय देह से यह सुवास निकल रही थी और सारे वन-प्रदेश को सुवासित कर रही थी। तरुणी का नाम सत्यवती था। पराशर मुनि ने उसे वरदान दिया था कि उसके सुकोमल शरीर से सदा दिव्य सुगंध निकलती रहेगी। गंगा के वियोग के कारण राजा के मन में जो विराग छाया हुआ था, वह इस सौरभमयी तरुणी को देखते ही विलीन हो गया। उस अलौकिक सुन्दरी को अपनी पत्नी बनाने की इच्छा उनके मन में बलवती हो उठी और उन्होंने सत्यवती से प्रेम-याचना की। सत्यवती बोली- "मेरे पिता मल्लाहों के सरदार हैं। उनकी अनुमति ले लीजिये, तो मैं आपकी पत्नी बनने को तैयार हूँ।" उसकी मीठी बोली उसके सौन्दर्य के अनुरूप ही थी। पर केवटराज बड़े चतुर निकले। राजा शान्तनु ने जब अपनी इच्छा उन पर प्रकट की, तो दाशराज ने कहा- "जब लड़की है तो इसका विवाह भी किसी न किसी से तो करना ही होगा। और इसमें संदेह नहीं कि आपके जैसा सुयोग्य वर इसको और कहाँ मिलेगा? पर आपको मुझे एक बात का वचन देना पड़ेगा।" केवटराज बोले- "आपके बाद हस्तिनापुर के राज-सिंहासन पर मेरी लड़की का पुत्र बैठेगा, इस बात का मुझे वचन दे सकते हैं?" केवटराज की शर्त राजा शान्तनु को नागवार लगी। काम-वासना से राजा की सारी देह विदग्ध हो रही थी। फिर भी उसने ऐसा अन्यायपूर्ण वचन देते न बना। गंगा-सुत को छोड़कर अन्य किसी को राजगद्दी पर बिठाने की कल्पना तक उनसे न हो सकी। निराश और उद्विग्न मन से नगर को लौट आये। किसी से कुछ कह भी न सके। पर चिन्ता उनके मन को कीड़े की तरह कुतर-कुतरकर खाने लगी। वह दिन-पर-दिन दुर्बल होने लगे। देवव्रत ने देखा कि पिता के मन में कोई-न-कोई व्यथा समाई हुई है। एक दिन उसने शान्तनु से पूछा- "पिताजी संसार का कोई भी सुख ऐसा नहीं है जो आपको प्राप्त न हो, फिर भी इधर कुछ दिनों से आप दुःखी दिखाई दे रहे हैं। आपका चेहरा पीला पड़ता जा रहा है और शरीर भी दुबला हो रहा है। आपको किस बात की चिन्ता है?" शान्तनु को सच्ची बात कहते जरा झेंप आई। फिर भी कुछ-न-कुछ तो बतलाना ही था। बोले- "बेटा! तुम मेरे एकमात्र पुत्र हो। और युद्ध का तो तुम्हें व्यसन सा हो गया है। किसी-न-किसी दिन तुम युद्ध में जाओगे अवश्य और संसार में किसी बात का ठिकाना नहीं-परमात्मा न करे, तुमको कुछ हो जाये तो फिर हमारे वंश का क्या होगा? इसीलिए तो शास्त्रज्ञ लोग कहते हैं कि एक पुत्र का होना-न होना बराबर है। मुझे इसी बात की चिन्ता है कि वंश की यह कड़ी बीच ही में न टूट जाये।" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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