महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
74.पितामह और कर्ण
जब कर्ण को यह पता चला कि भीष्म पितामह घायल होकर रणक्षेत्र में पड़े हैं तो वह उनके पास गया। उनको दंडवत प्रणाम किया और बोला- "पूज्य कुलनायक! सर्वथा निर्दोष होने पर भी आपकी घृणा का पात्र बना हुआ यह राधा-पुत्र कर्ण आपको प्रणाम करता है। "प्रणाम करके जब कर्ण उठा तो पितामह को उसके मुख पर भय की छाया-सी दिखाइ दी। यह देखकर भीष्म का दिल भर आया। बड़े प्रेमपूर्वक कर्ण के सिर पर उन्होंने हाथ रखा और आशीर्वाद दिया और चुभे हुए बाणों से होने वाले कष्ट को दबाकर बोले– "बेटा, तुम राधा के पुत्र नहीं, देवी कुन्ती के पुत्र हो। यह मुझे संसार का सारा मर्म जानने वाले नारद जी ने बताया है। सूर्यपुत्र! मैंने तुमसे द्वेष नहीं किया। अकारण ही तुमने पांडवों से वैर रक्खा। इसी कारण तुम्हारे प्रति मेरा मन मलिन हुआ। तुम्हारी दान-वीरता और शूरता से मैं भली-भाँति परिचित हूँ। इसमें कोई संदेह नहीं कि शूरता में तुम कृष्ण और अर्जुन की बराबरी कर सकते हो। तुम पांडवों के जेठे हो। इस कारण तुम्हारा कर्तव्य है कि तुम उनसे मित्रता कर लो। मेरी यही इच्छा है कि युद्ध में मेरे सेनापतित्व के साथ-ही-साथ पांडवों के प्रति तुम्हारे वैर-भाव का भी आज ही अन्त हो जाये।" यह सुन कर्ण बड़ी नम्रता के साथ बोला– "पितामह! मैं जानता हूँ कि मैं कुंती का पुत्र हूँ। यह भी मुझे मालूम है कि मैं सूत-पुत्र नहीं हूँ। परन्तु फिर भी दुर्योधन से जो मैंने संपत्ति प्राप्त की है, उसके कारण मैं उसकी सहायता करने को बाध्य हूँ। यह बात मुझसे नहीं हो सकती कि अब मैं दुर्योधन का साथ छोड़ दूं और उनके शत्रुओं से जा मिलूं। मेरा कर्तव्य यही है कि दुर्योधन के ही पक्ष में रहकर युद्ध करूं। आप कृपया मुझे इस बात की अनुमति दें कि मैं दुर्योधन की तरफ से लड़ूं। मैंने जो कुछ किया या कहा, उसमें जितने दोष हों, उसके लिये मुझे क्षमा कर दें।" कर्ण का कथन भीष्म बड़े ध्यान से सुनते रहे। उसके बाद बोले– "जो तुम्हारी इच्छा हो, वही करो। जीत धर्म की होगी। "भीष्म के आहत होने के बाद भी महाभारत का युद्ध बंद नहीं हुआ। पितामह ने सबके हित के लिए जो सलाह दी, कौरवों ने उस ओर ध्यान नहीं दिया और युद्ध जारी रहा। भीष्म के बिना कौरवों की सेना ठीक उसी तरह असहाय जान पड़ी जैसे गड़रिये के बिना भेड़-बकरियों का झुण्ड। सत्य पर अटल रहने वाले भीष्म के आहत होते ही सभी कौरव एक स्वर में बोल उठे– "कर्ण! अब तुम्हीं हमारी रक्षा कर सकते हो।" कौरवों ने सोचा कि कर्ण के युद्ध में सम्मिलित हो जाने पर अवश्य हमारी ही जीत होगी। जब तक भीष्म सेनापति बने रहे तब तक कर्ण ने युद्ध में भाग नहीं लिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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