महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
12.द्रोणाचार्य
आचार्य द्रोण महर्षि भरद्वाज के पुत्र थे। उन्होंने पहले अपने पिता के पास वेद-वेदान्तों का अध्ययन किया और बाद में उसने धनुर्विद्या भी सीखी। पांचाल-नरेश का पुत्र द्रुपद भी द्रोण के साथ ही भरद्वाज-आश्रम में शिक्षा पा रहा था। दोनों में गहरी मित्रता थी। कभी-कभी राजकुमार द्रुपद उत्साह में आकर द्रोण से यहाँ तक कह देता था कि पांचाल देश का राजा बन जाने पर मैं आधा राज्य तुम्हें दे दूंगा। शिक्षा समाप्त होने पर द्रोणाचार्य ने कृपाचार्य की बहन से ब्याह कर लिया। उससे उनके एक पुत्र हुआ जिसका नाम उन्होंने अश्वत्थामा रखा। द्रोण अपनी पत्नी और पुत्र को प्रेम करते थे। द्रोण बड़े गरीब थे। वह चाहते थे कि किसी तरह धन प्राप्त किया जाये और स्त्री-पुत्र के साथ सुख से रहा जाये। उन्हें खबर लगी कि परशुराम अपनी सारी संपत्ति गरीब ब्राह्मणों को बांट रहे हैं तो भागे-भागे उनके पास गये; लेकिन उनके पहुँचने तक परशुराम अपनी सारी सम्पत्ति वितरित कर चुके थे और वन-गमन की तैयारी कर रहे थे। द्रोण को देखकर वह बोले- "ब्राह्मण-श्रेष्ठ! आपका स्वागत है। पर मेरे पास जो कुछ था, वह मैं बांट चुका। अब यह मेरा शरीर और धनुर्विद्या ही बाकी बची है, बताइये मैं आपके लिए क्या करूं?" तब द्रोण ने उनसे सारे अस्त्रों का प्रयोग उपसंहार तथा रहस्य सिखाने की प्रार्थना की। परशुराम ने यह प्रार्थना स्वीकार कर ली और द्रोण को धनुर्विद्या की पूरी शिक्षा दे दी। कुछ समय बाद राजकुमार द्रुपद के पिता का देहावसान हो गया और द्रुपद राजगद्दी पर बैठा। द्रोणाचार्य को जब द्रुपद के पांचाल देश की राजगद्दी पर बैठने की खबर लगी तो यह सुनकर वह बड़े प्रसन्न हुए और राजा द्रुपद से मिलने पांचाल देश को चल पड़े। उन्हें द्रुपद की गुरु के आश्रम में लड़कपन में की गई बातचीत याद थी। सोचा यदि आधा राज्य न भी देगा तो कम-से-कम कुछ धन तो जरूर ही देगा। यह आशा लेकर द्रोणाचार्य राजा द्रुपद के पास पहुँचे और बोले- "मित्र द्रुपद मुझे पहचानते हो न? मैं तुम्हारा बालपन का मित्र द्रोण हूँ।" ऐश्वर्य के मद में मत्त हुए राजा द्रुपद को द्रोणाचार्य का आना बुरा लगा और द्रोण का अपने साथ मित्र का-सा व्यवहार करना तो और भी अखरा। वह द्रोण पर गुस्सा हो गया और बोला- "ब्राह्मण तुम्हारा यह व्यवहार सज्जनोचित नहीं। मुझे मित्र कहकर पुकारने का तुम्हें साहस कैसे हुआ? सिंहासन पर बैठे हुए एक राजा के साथ एक दरिद्र प्रजाजन की मित्रता कभी हुई है? तुम्हारी बुद्धि कितनी कच्ची है! लड़कपन में लाचारी के कारण हम दोनों को जो साथ रहना पड़ा, उसके आधार पर तुम द्रुपद से मित्रता का दावा करने लगे! दरिद्र की धनी के साथ, मूर्ख की विद्वान के साथ और कायर की वीर के साथ मित्रता कहीं हो सकती हैं? मित्रता बराबरी की हैसियतवालों में ही होती है। जो किसी राज्य का स्वामी न हो, वह राजा का मित्र कभी हो नहीं सकता।" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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