महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
54.राजदूत संजय
उपप्लव्य नगर में रहते हुए पांडवों ने अपने मित्र-राजाओं को दूतों द्वारा संदेश भेजकर कोई सात अक्षौहिणी सेना एकत्र की। उधर कौरवों ने भी अपने मित्रों द्वारा काफी बड़ी सेना इकट्ठी कर ली, जो ग्यारह अक्षौहिणी तक हो गई थी। आजकल के सेना-विभाग में जैसे विभिन्न दलों को मिलाकर एक डिवीजन बनता है, वैसे ही उन दिनों कई विभाग मिलाकर एक अक्षौहिणी बनती थी। उन दिनों की फौजी रीति यह थी एक रथ, एक हाथी, तीन घोड़े और पांच पैदल सिपाहियों के हिसाब से सेना इकट्ठी की जाये। एक अक्षौहिणी में 21,870 रथ होते थे और हाथी, घोड़े, पैदल आदि की संख्या उसी हिसाब से होती थी। साथ ही हर तरह के युद्ध-सामान और हथियार भी इकट्ठे हुआ करते थे। आजकल आर्म्ड कार (बख्तरबंद गाडियां) जो काम देती है वही काम उन दिनों रथों से लिया जाता था। आजकल की लड़ाई में 'टैंकों' का जो स्थान है वह उन दिनों हाथियों को प्राप्त था। पांचाल नरेश के पुरोहित, जो युधिष्ठिर की ओर से राजदूत बनकर हस्तिनापुर गये थे, नियत समय पर धृतराष्ट्र की राज-सभा में पहुँचे। यथाविधि कुशल-समाचार पूछने के बाद पांडवों की ओर से संधि का प्रस्ताव करते हुए वह बोले- "अनादि-काल से जो धर्म-तत्व प्रचलित रहा है, वह आपको विदित ही है। राजकुल का यह धर्म रहा है कि पिता की सम्पति पर पुत्रों का अधिकार होता है। जिस प्रकार राजा धृतराष्ट्र महाराज विचित्रवीर्य के पुत्र हैं, उसी प्रकार महाराज पाण्डु भी थे। अत: उनकी पैतृक संपति पर भी दोनों का समान अधिकार होना चाहिए। लेकिन यह कहाँ का न्याय है कि धृतराष्ट्र के पुत्र संपूर्ण राज्य के स्वामी हो जायें और पाण्डु–पुत्र राज्य से वंचित रहें? कुरुवंश के वीर पांडवों को जो कुछ कष्ट उठाना पड़ा, उस सबको वह भूल गये और अब शांति की इच्छा रखते हुए संधि की प्रार्थना करते हैं। उनका विचार है कि युद्ध से संसार का नाश ही होगा और इसी कारण वे युद्ध से घृणा करते हैं। वे लड़ना नहीं चाहते। इसलिये न्याय तथा पहले के समझौते के अनुसार यह उचित होगा कि आप उनका हिस्सा देने की कृपा करें। इसमें विलंब न कीजिए।" यह सुन विवेकशील और महारथी भीष्म बोले- "ईश्वर की कृपा से पांडव कुशल से हैं। कितने ही राजा उनकी सहायता करने को तैयार हैं। इतने शक्ति संपन्न होने पर भी वे युद्ध की चाह नहीं रखते, संधि ही चाहते हैं, इसलिये यही न्यायोचित है कि उन्हें उनका राज्य वापस दे दिया जाये।"
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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