महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
81.पुत्र-शोक
"हा दैव! जिस वीर ने द्रोण और अश्वत्थामा को, कृप और दुर्योधन को परास्त कर दिया था, जिसने शत्रु-सेना को नष्ट–भ्रष्ट कर दिया था, वह चिर-निद्रा में सो गया। हाय मेरे लाड़ले, दु:शासन को खदेड़ने वाले शूर! क्या सचमुच तुम्हारी मृत्यु हो गई? तो फिर अब मुझे विजय की क्या जरूरत! अब राज्य को ही लेकर मैं क्या करूंगा? हा दैव! अर्जुन को मैं कैसे सांत्वना दूंगा? बेचारी सुभद्रा को, जो बच्चे से बिछड़ी हुई गऊ की भाँति तड़पेगी, मैं कैसे शांत कर सकूंगा? जिन बातों से स्वयं मुझे सांत्वना नहीं मिल सकती, ऐसी निरर्थक बातें दूसरों से कैसे करूं? लोभ में पड़कर लोगों की बुद्धि मंद हो जाती है। जैसे कोई मतिहीन शहद के लालच में पड़कर सामने के गड्ढे को देखे बिना उसमें गिरकर नाश को प्राप्त हो जाता है, वैसे ही मैंने भी विजय की लालसा में पड़कर अपने प्यारे बेटे को सर्वनाश के गड्ढे में धकेल दिया। मुझ जैसा मतिहीन और मूर्ख संसार-भर में और कौन हो सकता है? मैं भी कैसा हत्यारा और पापी हूँ कि जो अर्जुन की अनुपस्थिति में उसके लाड़ले बेटे की रक्षा करने के बजाय उसकी हत्या करवा दी!" अपने शिविर में दु:ख की प्रतिमूर्ति-से बैठे युधिष्ठिर इस प्रकार विलाप कर रहे थे। आसपास बैठे लोग अभिमन्यु की शूरता का स्मरण करते हुए अवाक से बैठे थे। युधिष्ठिर पर जब कभी विपदा आती और वह शोक-विह्वल होते थे तब भगवान व्यास उनके पास किसी-न-किसी प्रकार आ पहुँचते थे और उनको समझा-बुझाकर शांत किया करते थे। इस समय भी भगवान व्यास आ पहुँचे। युधिष्ठिर ने उनका उचित आदर-सत्कार करके ऊंचे आसन पर बिठाया और रुद्ध कंठ से बोले- "भगवान, हजार प्रयत्न करने पर भी मन शांत नहीं होता।" व्यास जी युधिष्ठिर को सांत्वना देते हुए बोले- "युधिष्ठिर, तुम बड़े बुद्धिमान हो। शास्त्रों के ज्ञाता हो। किसी के विछोह पर इस तरह शोक-विह्वल होना और मोह में पड़ना तुम्हें शोभा नहीं देता। मृत्यु के तत्व से तुम क्या परिचित नहीं हो? नासमझ लोगों की तरह शोक करना तुम्हें उचित नहीं।" और इस तरह जीवन-मरण की दार्शनिक व्याख्या करते हुए भगवान व्यास ने युधिष्ठिर को शांत किया। वे बोले- "जगत-स्रष्टा ब्रह्मा ने अखिल विश्व का सृजन किया, भाँति-भाँति के असंख्य जीव-जंतुओं का निर्माण किया और इस प्रकार जीव-जंतुओं की संख्या बढ़ती ही गई। वह रुकती तो थी ही नहीं। विधाता ने जब यह देखा तो भारी सोच में पड़ गये कि जगत में ध्यान तो समिति है और उस पर रहने वाले जीव-जंतुओं की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती चली जा रही है। इसके लिये क्या उपाय करें? ब्रह्मा ने बहुत सोचा-विचारा, परंतु फिर भी उन्हें कोई उपाय न सूझा। विधाता के मन में इस लगातार चिंता के कारण जो संताप हुआ, उससे एक भीषण ज्वाला-सी उठी और सारे संसार का नाश करने लगी।" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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