महाभारत कथा -राजगोपालाचार्य पृ. 321

महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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97.युधिष्ठिर की वेदना

कुरुक्षेत्र के युद्ध मे मारे गये बन्धु-बांधवों की आत्मा-शांति के जलांजलि देने के बाद पांचों पांडव गंगा किनारे एक महीने तक ठहरे। इन्हीं दिनों एक रोज नारद मुनि वहाँ पधारे। उन्होंने युधिष्ठिर से प्रश्न किया- "धर्मपुत्र! भगवान कृष्ण के अनुग्रह धनंजय के बाहुबल और अपनी धर्मपरायणता के बल से तुम्हें विजय का यश प्राप्त हुआ सारा राज्य अब तुम्हारा ही हो गया। क्यों अब तो संतुष्ट हो न?"

युधिष्ठिर ने रुंधे हुए स्वर से कहा- "भगवान, यह बात सच है कि सारा राज्य मेरे अधीन हो गया है। फिर भी इस विजय को मैं भारी पराजय ही समझता हूँ। जिसमें मेरे बन्धु-बांधव मारे गये, जिसकी प्राप्ति के लिये हमें अपने प्यारे पुत्रों की बलि चढ़ानी पड़ी, उसे विजय कैसे कहा जाये? मुनिवर जो अपने व्रत पर आजीवन अटल रहे और जिनकी युद्ध -कुशलता पर सारा संसार मुग्ध था अपने उस बड़े भाई कर्ण को शत्रु समझकर हमने मार डाला। राज्य के लोभ में पड़कर ही तो हमने यह घोर पाप कर डाला। जिस वीर ने अपनी माता से की हुई प्रजि‍ज्ञा का पालन करते हुए हम लोगों को प्राणों की भीख दी थी अपने उसी भाई को हमने अन्याय से मारा। आप ही बताइये कि मुझसे बढ़कर नीच और दुरात्मा और कौन हो सकता है? महर्षि, आप संतुष्ट होने की बात पूछते हैं मेरा हृदय तो आज जिस व्यथा से भरा हुआ है उसका कहना ही कठिन है। कर्ण के पैर माता कुंती के पैरों से बिलकुल मिलते थे। राजसभा में उन्होंने जब हमारा अपमान किया था, तब मुझे क्रोध तो बहुत आ रहा था; किन्‍तु ज्‍योंही उनके पैरों पर मेरी दृष्टि पड़ती थी, न जाने कैसे मेरा क्रोध शांत हो जाता था। जब यह पता चला कि कर्ण हमारा भाई था, तब उस बात का रहस्य समझ में आया।"

इतना कहकर युधिष्ठिर ने दीर्घ निःश्वास लिया। वह ये बातें याद कर-करके बड़े व्यथित हो जाते थे। इस पर नारद मुनि ने कर्ण के शाप पाने का सारा हाल युधिष्ठिर को सुनाया और उनकी व्यथा दूर करने की चेष्टा की। युवावस्था में कर्ण को जब यह बात मालूम हुई कि अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञान में अर्जुन उससे बहुत बढ़ा-चढ़ा है तो उसने द्रोणाचार्य से प्रार्थना की कि वह उसे ब्रह्मास्‍त्र चलाना सिखाने की कृपा करें।

आचार्य द्रोण ने उसकी प्रार्थना अस्‍वीकार करते हुए कहा कि ब्रह्मास्‍त्र की विद्या या तो किसी शीलवान ब्राह्मण को ही सिखाई जा सकती है या किसी ऐसे क्षत्रिय को, जिसने कठिन तपस्या करके अपने-आपको पवित्र बना लिया हो। इसके अलावा किसी को ब्रहमास्‍त्र की विद्या नहीं सिखलाई जा सकती। यह सुन कर्ण महेन्द्र पर्वत पर गया, जहाँ परशुराम आश्रम बनाकर रहा करते थे। कर्ण ने यह भी सुन रखा था कि परशुराम केवल ब्राह्मणों को ही शिष्‍य बनाते हैं। इस कारण कर्ण ने परशुराम से झूठमूठ कह दिया कि मैं ब्राह्मण हूँ। परशुराम ने उसे शिष्य बना लिया। परशुराम के साथ रहकर कर्ण धनुर्वेद और अस्त्रों की शिक्षा प्राप्त करने लगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. गणेश जी की शर्त 1
2. देवव्रत 4
3. भीष्म-प्रतिज्ञा 7
4. अम्बा और भीष्म 9
5. कच और देवयानी 13
6. देवयानी का विवाह 18
7. ययाति 24
8. विदुर 26
9. कुन्ती 29
10. पाण्डु का देहावसान 31
11. भीम 32
12. कर्ण 34
13. द्रोणाचार्य 37
14. लाख का घर 40
15. पांडवों की रक्षा 44
16. बकासुर-वध 48
17. द्रौपदी स्वयंवर 54
18. इन्द्रप्रस्थ 58
19. सारंग के बच्चे 64
20. जरासंध 67
21. जरासंध-वध 70
22. अग्र-पूजा 73
23. शकुनि का प्रवेश 76
24. खेलने के लिए बुलावा 79
25. बाजी 82
26. द्रौपदी की व्‍यथा 86
27. धृतराष्‍ट की चिन्‍ता 90
28. श्रीकृष्‍ण की प्रतिज्ञा 93
29. पाशुपत 96
30. विपदा किस पर नहीं पड़ती ? 101
31. अगस्‍त्‍य मुनि 105
32. ऋष्‍यश्रृंग 109
33. यवक्रीत की तपस्‍या 113
34. यवक्रीत की मृत्‍यु 115
35. विद्या और विनय 118
36. अष्‍टावक्र 120
37. भीम और हनुमान 122
38. ‘मैं बगुला नहीं हूं’ 127
39. द्वेष करने वाले का जी कभी नहीं भरता’ 130
40. दुर्योधन अपमानित होता है’ 133
41. कृष्‍ण की भूख’ 136
42. मायावी सरोवर 140
43. यक्ष प्रश्‍न 143
44. अनुचर का काम 146
45. अज्ञातवास 151
46. विराट की रक्षा 155
47. राजकुमार उत्तर 159
48. प्रतिज्ञा-पूर्ति 163
49. विराट का भ्रम 167
50. मंत्रणा 171
51. पार्थ-सारथी 176
52. मामा विपक्ष में 178
53. देवराज की भूल 180
54. नहुष 183
55. राजदूत संजय 187
56. सुई की नोक जितनी भूमि भी नहीं 191
57. शांतिदूत श्रीकृष्‍ण 194
58. ममता एवं कर्तव्‍य 199
59. कौरवों और पांडवों के सेनापति 202
60. बलराम 204
61. रु‍क्मिणी 207
62. असहयोग 210
63. गीता की उत्‍पत्ति 213
64. आशीर्वाद-प्राप्ति 215
65. पहला दिन 217
66. दूसरा दिन 220
67. तीसरा दिन 223
68. चौथा दिन 227
69. पांचवां दिन 231
70. छठा दिन 233
71. सातवां दिन 236
72. आठवां दिन 239
73. नवां दिन 242
74. भीष्‍म का अंत 244
75. पितामह और कर्ण 246
76. सेनापति द्रोण 248
77. दुर्योधन का कुचक्र 249
78. बारहवां दिन 252
79. शूर भगदत्त 255
80. अभिमन्‍यु 260
81. अभिमन्‍यु का वध 264
82. पुत्र-शोक 267
83. सिंधुराज 271
84. अभिमंत्रित कवच 275
85. युधिष्ठिर की चिंता 279
86. युधिष्ठिर की कामना 283
87. कर्ण और भीम 286
88. कुंती का दिया वचन 290
89. भूरिश्रवा का वध 293
90. जयद्रथ-वध 297
91. आचार्य द्रोण का अंत 299
92. कर्ण भी मारा गया 302
93. दुर्योधन का अंत 305
94. पांडवों का शर्मिन्दा होना 309
95. अश्वत्थामा 313
96. अब विलाप करने से क्या लाभ 316
97. सांत्वना कौन दे? 318
98. युधिष्ठिर की वेदना 321
99. शोक और सांत्‍वना 324
100. ईर्ष्या 326
101. उत्तंक मुनि 329
102. सेर भर आटा 332
103. पांडवों का धृतराष्ट्र के प्रति बर्ताव 336
104. धृतराष्ट्र 338
105. तीनों वृद्धों का अवसान 341
106. श्रीकृष्ण का लीला-संवरण 342
107. धर्मपुत्र युधिष्ठिर 344
108. अंतिम पृष्ठ 346

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