महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
39.दुर्योधन अपमानित होता है’
एक बड़ी सेना और असंख्य नौकर चाकरों को साथ लेकर कौरव द्वैतवन के लिए रवाना हुए। दुर्योधन और कर्ण फूले नहीं समाते थे। वे सोच रहे थे कि पांडवों को कष्ट में पड़े देखकर खूब आनन्द आयेगा। उन्होंने पहुँचने पर अपने डेरे ऐसे स्थान पर लगाए जहाँ से पांडवों का आश्रम चार कोस की दूरी पर ही था। कुछ देर विश्राम करने के बाद वे ग्वालों की बस्तियों में गये, चौपायों की गिनती की, मुहर लगाकर विधिवत रस्म अदा की। इसके बाद जानवरों के खेल और नाच देखकर कुछ मनोरंजन किया। फिर जंगली जानवरों के शिकार की बारी आई। शिकार खेलते-खेलते दुर्योधन उस जलाशय के पास पहुँचा जो पांडवों के आश्रम के पास ही था। तालाब का स्वच्छ जल, चारों ओर के रमणीक दृश्य आदि देखकर दुर्योधन खुश हुआ। सबसे बढ़कर आनंद तो उसे इस बात से हुआ कि जलाशय के पास ठहरे हुए पांडवों के हाल चाल भी देखे जा सकेंगे। दुर्योधन ने अपने लोगों को आज्ञा दी कि डेरे तालाब के किनारे लगा दिए जायें। दैवयोग से गन्धर्वराज चित्रसेन भी अपने परिवार के साथ उसी जलाशय के तट पर डेरा डाले हुए था। दुर्योधन के कर्मचारी डेरा लगाने वहाँ गये तो गन्धर्वराज के अनुचरों ने उन्हें वहाँ डेरा लगाने से मना किया। अनुचरों ने लौटकर दुर्योधन को इसकी खबर दी कि कोई विदेशी नरेश अपने परिवार के साथ सरोवर के तट पर ठहरे हुए हैं और उनके नौकर हमें वहाँ ठहरने नहीं दे रहे हैं। यह सुनते ही दुर्योधन गुस्से से आग बबूला हो उठा। वह बोला- "किस राजा की मजाल है जो मेरी आज्ञा को पूरा न होने दे? जाओ, अपना काम पूरा करके आओ और कोई रोके तो उसकी और उसके साथियों की पूरी तरह खबर लो।" आज्ञा पाकर दुर्योधन के अनुचर फिर जलाशय के पास गये और किनारे पर तम्बू गाड़ने लगे। इस पर गन्धर्वराज के नौकर बहुत बिगड़े और दुर्योधन के अनुचरों की खूब खबर ली। वे कुछ न कर सके और अपने प्राण लेकर भाग खड़े हुए। दुर्योधन को जब इस बात का पता चला तो उसके क्रोध की सीमा न रही। अपनी सेना लेकर तालाब की ओर बढ़ा। वहाँ पहुँचना था कि गन्धर्वों और कौरवों की सेनाएं आपस में भिड़ गईं। घोर संग्राम छिड़ गया। पहले गन्धर्वों ने खुले तौर से आमने सामने का युद्ध किया, जिसमे उनको हार खानी पड़ी। यह देखकर गन्धर्वराज क्रुद्ध हो उठा और माया युद्ध शुरू कर दिया। ऐसे-ऐसे मायास्त्र उसने कौरव सेना पर बरसाये कि वह उनके आगे ठहर न सकी। यहाँ तक कि कर्ण जैसे महारथियों के भी रथ और अस्त्र चूर-चूर हो गये और वे उलटे पांव भाग खड़े हुए। अकेला दुर्योधन लड़ाई के मैदान में अंत तक डटा रहा। गन्धर्वराज चित्रसेन ने उसे पकड़ लिया और रस्सी से बांधकर अपने रथ पर बिठा लिया और शंख बजाकर विजय घोष किया। इस तरह कौरवों के पक्ष के सब प्रधान वीरों को गन्धर्व ने कैद कर लिया। कौरवों की सेना तितर बितर हो गई। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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