महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
44.अज्ञातवास
युधिष्ठिर ने गेरुए वस्त्र पहने और संन्यासी का भेष धर लिया। अर्जुन के तो शरीर में ही नपुंसक के से परिवर्तन हो गये। और सबने भी अपना-अपना भेष इस प्रकार बदल लिया कि कोई उन्हें पहचान न सके, किन्तु शक्ल सूरत के बदल जाने पर भी क्षत्रियों की सी स्वाभाविक कांति और तेज भला कहाँ छिप सकता था? राजा विराट के यहाँ चाकरी करने गये तो विराट ने उन्हें अपना नौकर बनाकर रखना उचित न समझा। हर एक के बारे में उनका यही विचार हुआ कि ये तो राज करने योग्य प्रतीत होते हैं। मन में शंका तो हुई, पर पांडवों के बहुत आग्रह करने और विश्वास दिलाने पर राजा ने उन्हें अपनी सेवा में ले लिया। पांडव अपनी-अपनी पसंद के कामों पर नियुक्त कर लिये गये। युधिष्ठिर कंक के नाम से विराट के दरबारी बन गये और राजा के साथ चौपड़ खेलकर दिन बिताने लगे। भीमसेन रसोइयों का मुखिया बनकर रह गया। वह कभी-कभी मशहूर पहलवानों से कुश्ती लड़कर या हिंस्त्र जन्तुओं को वश में करके राजा का दिल बहलाया करता था। अर्जुन बृहन्नला के नाम से रनिवास की स्त्रियों को-खासकर विराट की कन्या उत्तरा और उसकी सहेलियों एवं दास दासियों को नाच और गाना-बजाना सिखलाने लगा। नकुल घोड़ों को सधाने, उनकी बीमारियों का इलाज करने और उनकी देखभाल करने में अपनी चतुरता का परिचय देते हुए राजा को खुश करता रहा। सहदेव गाय बैलों की देखभाल करता रहा। पांचाल राजा की पुत्री द्रौपदी, जिसकी सेवा-टहल के लिए कितनी ही दासियां रहती थीं, अब अपने पतियों की प्रतिज्ञा पूरी करने के हेतु दूसरी रानी की आज्ञाकारिणी दासी बन गई। विराट की पत्नी सुदेष्णा की सेवा सुश्रूषा करती हुई रनिवास में सैरन्ध्री का काम करने लगी। रानी सुदेष्णा का भाई कीचक बड़ा ही बलिष्ठ और प्रतापी वीर था। मत्स्य देश की सेना का वही नायक बना हुआ था और अपने कुल के लोगों को साथ लेकर कीचक ने बूढ़े विराटराज की शक्ति और सत्ता में खूब वृद्धि कर दी थी। कीचक की धाक लोगों पर जमी हुई थी। लोग कहा करते थे कि मत्स्य देश का राजा तो कीचक है, विराट नहीं। यहाँ तक कि स्वयं विराट भी कीचक से डरा करते थे और उसका कहा मानते थे। कीचक को अपने बल और प्रभाव का बड़ा घमंड था। ऊपर से राजा विराट ने भी उसे सिर चढ़ा रक्खा था। इस कारण उसकी बुद्धि फिर गई थी। इधर जब से द्रौपदी पर उसकी नजर पड़ी,उसके मन की वासना और प्रबल हो उठी। उसने सोचा आखिर दासी ही तो है। इसे सहज ही में राजी कर लिया जा सकता है। इस विचार से कई बार सती द्रौपदी के साथ छेड़-छाड़ करने की चेष्टा की। कीचक की इन हरकतों से द्रौपदी बड़ी कुंठित हो उठी। किन्तु किसी से कुछ कहते भी न बन पड़ा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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