महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
89.जयद्रथ-वध
"कर्ण! आज हमारा भाग्य-निर्णय होने वाला है।" दुर्योधन ने कहा, "और आज वह अवसर हाथ आया है, जिससे मेरे भाग्य के चमकने की सम्भावना है। आज यदि अर्जुन की प्रतिज्ञा पूरी न हो पाई तो निश्चय ही वह लज्जा के मारे आत्मघात कर लेगा। अर्जुन के मर जाने पर पांडवों का नाश भी निश्चित है। फिर तो यह सारा राज्य हमारे ही अधीन हो जायेगा। उसके बाद कोई हमारे सामने सिर नहीं उठा सकेगा। मूर्खता और भ्रम के वश होकर अर्जुन ने यह प्रतिज्ञा करके अपने ही सर्वनाश का आयोजन कर लिया है। यह मेरे भाग्योदय की ही सूचना है! ऐसे अवसर को हाथ से न जाने देना चाहिए। हमें कोई-न-कोई प्रयत्न करके अर्जुन की प्रतिज्ञा झूठी कर देनी चाहिए। आज तुम्हें अपनी रणकुशलता का पूरा-पूरा परिचय देना होगा। आज तुम्हारी परीक्षा का दिन है। अब सूरज अस्त हुआ ही चाहता है। थोड़ी ही देर रह गई है। सूर्यास्त तक अर्जुन जयद्रथ के पास पहुँच नहीं सकेगा। कृपाचार्य, अश्वत्थामा, शल्य, तुम और मैं सभी साथ-साथ और हर तरह से सतर्क रहकर जयद्रथ की रक्षा करते रहें तो अर्जुन की प्रतिज्ञा पूरी नहीं हो पायेगी।" यह सुन कर्ण बोला- "राजन! भीमसेन के साथ युद्ध करते-करते मैं बहुत थक गया हूँ। मेरा सारा शरीर घावों से भर गया है। शरीर की स्फूर्ति कम हो गई है। फिर भी तुम्हारे उद्देश्य की पूर्ति में यथासंभव पूरा हाथ बटाऊंगा। मैं तुम्हारी ही खातिर जी रहा हूँ।" युद्ध-स्थल में जिस समय कर्ण और दुर्योधन में ये बातें हो रही थीं, उसी समय दूसरी तरफ अर्जुन कौरव-सेना में प्रलय-सा मचा रहा था। अर्जुन की इच्छा यह थी कि किसी तरह कौरव-सेना को तोड़-फोड़कर अंदर प्रवेश करके सूर्यास्त होने से पहले जयद्रथ के निकट पहुँचकर उसका काम तमाम किया जाय। इतने में श्रीकृष्ण ने एकाएक अपना शंख-पांचजन्य जोरों से बजाया। सुनते ही उनका सारथी दारुक एक रथ लेकर आ पहुँचा। सात्यकि लपककर उस पर सवार हुआ। वह कर्ण पर टूट पड़ा और दोनों में बड़ी कुशलता और तत्परता से युद्ध होने लगा। दारुक ने रथ चलाने में बड़ा कौशल दिखाया और सात्यकि ने धनुष चलाने में। दोनों का रण-कौशल देखने को देवता आकाश में इकट्ठे हो गये। कर्ण के चारों घोड़े और सारथी मारे गये। उसके रथ की ध्वजा कटकर गिर पड़ी। पल-भर में रथ भी चूर हो गया। इस पर कर्ण दुर्योधन के रथ पर चढ़कर युद्ध करने लगा। इस युद्ध का वर्णन धृतराष्ट्र को सुनाते हुए संजय ने कहा- "इस संसार में श्रीकृष्ण, अर्जुन और सात्यकि के समान धनुर्धारी और कोई नहीं है।" उधर कौरव-सेना को तितर-बितर करता हुआ अर्जुन जयद्रथ के पास आखिर पहुँच ही गया। उस समय के अर्जुन के रौद्र रूप का वर्णन नहीं हो सकता था। वह अपने पुत्र अभिमन्यु की हत्या और पिछली सारी मुसीबतों को याद करके क्रोध से आग की भाँति प्रज्वलित हो उठा। उस समय वह दोनों हाथों से गांडीव धनुष का प्रयोग कर रहा था। कौरव-सेना इससे भयाकुल हो उठी। उस समय वह कौरव-सेना को महाकाल के समान भयानक प्रतीत होने लगा। जयद्रथ की रक्षा करने वाले सभी महारथियों को हराकर अर्जुन एकदम जयद्रथ के पास पहुँच गया और उस पर टूट पड़ा। पर जयद्रथ भी कोई साधारण वीर नहीं था। वह सुविख्यात योद्धा था। डटकर लड़ने लगा। उसे हराना अर्जुन के लिये भी सुगम न था बड़ी देर तक युद्ध होता रहा। दोनो पक्षों के वीर सूर्य की ओर बार-बार देखने लगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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