महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
19.जरासंध
इन्द्रप्रस्थ में प्रतापी पाण्डव न्यायपूर्वक प्रजा-पालन कर रहे थे। युधिष्ठिर के भाइयों तथा साथियों की इच्छा हुई अब राजसूय यज्ञ करके सम्राट पद प्राप्त किया जाये। इससे प्रतीत होता है, साम्राज्य की लालसा उन दिनों भी काफी थी। इस बारे में सलाह करने के लिये युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण को संदेश भेजा। जब श्रीकृष्ण को मालूम हुआ कि युधिष्ठिर उनसे मिलना चाहते हैं तो तत्काल ही वह द्वारका से चल पड़े और इन्द्रप्रस्थ पहुँचे।
युधिष्ठिर की बात शांति से सुनकर श्रीकृष्ण बोले- "मगधदेश के राजा जरासंध ने सब राजाओं को जीतकर उन्हें अपनी अधीन कर रक्खा है। क्षत्रिय राजाओं पर जरासंध की धाक जमी हुई है। सभी उसका लोहा मान चुके हैं और उसके नाम से डरते हैं, यहाँ तक कि शिशुपाल जैसे शक्ति-सम्पन्न राजा भी उसकी अधीनता स्वीकार कर चुके हैं और उसकी छत्रछाया में रहना पसंद करते हैं। अतः जरासंध के रहते हुए और कौन सम्राट पद प्राप्त कर सकता है? जब महाराज उग्रसेन के नासमझ लड़के कंस ने जरासंध की बेटी से ब्याह कर लिया था और उसका साथी बन चुका था तब मैंने और मेरे बन्धुओं ने जरासंध के विरुद्ध युद्ध किया था। तीन बरस तक हम उसकी सेनाओं के साथ लड़ते रहे, पर आखिर हार गये। जरासंध के भय से हमें मथुरा छोड़कर दूर पश्चिम द्वारका में जाकर नगर और दुर्ग बनाकर रहना पड़ा। आपके साम्राज्याधीश होने में दुर्योधन और कर्ण को आपत्ति न भी हो, फिर भी जरासंध से इसकी आशा रखना बेकार है। बगैर युद्ध के जरासंध इस बात को नहीं मान सकता। जरासंध ने आज तक पराजय का नाम तक नहीं जाना। ऐसे अजेय पराक्रमी राजा जरासंध के जीते जी आप राजसूय यज्ञ नहीं कर सकेंगे। किसी न किसी उपाय से पहले उसका वध करना होगा, उसने जो राजे- महाराजे बन्दीगृह में डाल रक्खे हैं, उनको छुड़ाना होगा। जब यह हो जायेगा, तभी राजसूय यज्ञ करना आपके लिये साध्य होगा।"
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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