महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
57.ममता एवं कर्तव्य
श्रीकृष्ण के हस्तिनापुर से लौटते ही शांति स्थापना की जो थोड़ी-बहुत आशा थी, वह भी लोप हो गई। कुंती देवी को जब पता चला कि कुलनाशी युद्ध छिड़ेगा ही तो वह बड़ी व्याकुल हो उठीं। एक ओर तो भय था कि संभव है कि कहीं वंश का सर्वनाश ही न हो जाये, तो दूसरी ओर क्षत्रियोचित संस्कार की प्रेरणा थी कि समर भूमि में खेत रहना ही पुत्रों के लिये श्रेयस्कर होगा। वह पुत्रों से कैसे कहती कि अपमान का कड़ा घूंट पीकर रह जायें और युद्ध न होने दें? यदि यह कहती भी तो क्षत्रिय वीर पांडव उनकी मानते भी क्यों? वे तो लड़ेंगे ही। तो फिर? नतीजा यही न होगा कि सारे वंश का आमूल उच्छेदन हो जाये! जब वंश का ही नाश हो जाये तो फिर उनसे किसी को क्या फायदा पहुँचेगा? तबाही के परिणामस्वरूप कहीं सुख प्राप्त होता है? हा दैव! यह भी कैसी दुनिया है! कैसे इससे अपने को बचाउं?" माता कुंती के मन में इसी प्रकार ममता एवं वीरता में घोर खींचातानी हो रही थी। मन में एक हूक-सी उठती – "भीष्म, द्रोण, कर्ण जैसे अजेय महारथियों को मेरे पुत्र कैसे परास्त कर पायेंगे? इन तीनों महावीरों का विचार करते ही मन सिहर उठता है। औरों की तो कोई बात ही नहीं। कौरवों की सेना में ये तीनों ही ऐसे हैं जो मेरे पुत्रों के प्राणहारी बन सकते हैं। उनमें से आचार्य द्रोण शायद मेरे पुत्रों का वध न करें। शिष्यों पर अपने प्यार के कारण, या शिष्यों से लड़ना उचित न समझकर वे मेरे पुत्रों को जीवित छोड़ दें तो आश्चर्य नहीं। पितामह भीष्म की भी यही बात हो सकती है। अपने पौत्रों के प्राणों के प्यासे वे शायद न बनें। पर कर्ण! उसी का डर मुझे है। दुर्योधन की मनचाही करने खातिर मेरे पुत्रों को मारने की कर्ण ने ठान रखी है। पांडवों के नाम से ही उसे घृणा है। वीर भी तो वह बड़ा है। जब भी उसका विचार मन उठता है, एक भंयकर आग-सी मन में धधक उठती है। मेरा जेठा लड़का अपने ही भाइयों के प्राणों का प्यासा बने, यह मेरे ही पाप का तो फल है! क्यों न उसके पास जाउं और उसके जन्म का सच्चा हाल उसे बता दूं। अपने जन्म का हाल मालूम होने पर शायद उसके विचारों में परिवर्तन हो जाये और वह पांडवों को मारने का विचार छोड़ दे।" चिंता के कारण आकुल हो रही कुंती अपने पुत्रों की सुरक्षा का विचार करती हुई गंगा के किनारे पहुँची, जहाँ कर्ण रोज संध्या-वंदन किया करता था। कर्ण वहाँ संध्या करता दिखाई दिया। पूर्व की ओर मुंह किये, हाथ जोड़े ध्यानमग्न हो कर्ण खड़ा था। कुंती उसकी पीठ से लगकर उसका उत्तरीय अपने सिर पर रखे खड़ी हो गई। सूर्य के मध्याह्न होने तक कर्ण इसी प्रकार खड़ा-खड़ा जप करता रहा। सूर्य के ताप की उसे जरा भी परवाह न थी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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