महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
94.अश्वत्थामा
दुर्योधन पर जो-कुछ बीती उसका हाल सुनकर अश्वत्थामा बहुत क्षुब्ध हो उठा। अपने पिता द्रोणाचार्य को मारने के लिये जो कुचक्र रचा गया था वह उसे भूला नहीं था। भीमसेन ने युद्ध के माने हुए नियमों के विरुद्ध कमर के नीचे गदा-प्रहार करके दुर्योधन को हराया यह जानकर वह मारे क्रोध के आपे से बाहर हो गया। तुरन्त ही वह उस स्थान पर जा पहुँचा जहाँ दुर्योधन मृत्यु की प्रतीक्षा करता हुआ पड़ा था। दुर्योधन के सामने जाकर अश्वत्थामा ने दृढ़तापूर्वक प्रतिज्ञा की कि आज ही रात में पांडवों का बीज नष्ट करके रहेगा। मृत्यु की प्रतीक्षा करते हुए दुर्योधन ने जब यह सुना तो उसका पुराना वैर फिर जागृत हो गया और उसे कुछ प्रसन्नता हुई। उसने आसपास खड़े लोगों से कहकर अश्वत्थामा को कौरव-सेना को विधिवत सेनापति बनाया और बोला- "आचार्य-पुत्र! यह मेरा शायद अंतिम कार्य है। शायद आप ही मुझे शांति दिला सकें। मैं बड़ी आशा से आपकी राह देखता रहूंगा।" सूरज डूब चुका था, रात हो गई थी। घने जंगल में चारों ओर अंधेरा-ही-अंधेरा था। एक बड़े बरगद के पेड़ के नीचे अश्वत्थामा, कृपाचार्य और कृतवर्मा रात बिताने के गरज से ठहरे। कृप और कृतवर्मा बहुत थके हुए थे, इसलिये दोनों वही पड़े-पड़े सो गये। लेकिन अश्वत्थामा को नींद नहीं आई। क्रोध और द्वेष के मारे सर्प की भाँति फुफकारता हुआ वह जागता रहा। रात का समय था। चारों ओर कई तरह के जानवरों की बोलियाँ सुनाई दे रही थी। उनको सुनता-सुनता अश्वत्थामा विचारों मे डूब गया। उस बरगद की शाखाओं पर कौवों के झुण्ड-के-झुण्ड बसे हुए थे। रात को वे सब सोये हुए थे कि इतने में एक बड़े भारी उल्लू ने आकर उन कौवों पर आक्रमण कर दिया। एक-एक करके उन सोते हुए कौवों पर चोंच मारकर उल्लू उनको चीरने-फाड़ने लगा। रात का वक्त था। उल्लू को तो खूब दिखाई दे रहा था, लेकिन कौओं को अंधेरे में कुछ सूझता नहीं था। वे चिल्ला-चिल्लाकर मरते गये। अकेले उल्लू के आगे सैकड़ों कौवों की एक न चली। यह देख अश्वत्थामा सोचने लगा- 'अकेले उल्लू ने इन सभी कौवों को सोते समय उनकी कमज़ोरी का लाभ उठाकर जिस तरह मार डाला है, ठीक वैसे ही मैं भी इन अधम पांडवो को और पिताजी की हत्या करने वाले धृष्टद्युम्न को, उनके संगी-साथियों समेत एक साथ ही क्यों न मार डालूं? अभी रात का समय है और वे सब अपने शिविरों में पड़े सो रहें होंगे। इस समय उन सबका वध कर डालना बहुत सुगम होगा। यद्यपि ऐसा करना न्याययुक्त नहीं है, पर उन्होंने भी तो अधर्म का ही सहारा लेकर मेरे पूज्य-पिता एवं दुर्योधन को मारा है। इस अधर्म का बदला अधर्म से ही क्यों न लूं? इस उल्लू ने तो मुझे ठीक समय पर उपदेश ही दिया समझो! फिर समय को देखते हुए, उसके अनुसार युद्ध के नये-नये ढंगो को काम में लाना अन्याय कैसे हो सकता है?' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज