महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
75.सेनापति द्रोण
दुर्योधन और कर्ण इस बारे में सोच-विचार करने लगे कि अब सेनापति किसे बनाया जाये? कर्ण बोले- "यहाँ पर जितने क्षत्रिय उपस्थित हैं, वे सब सेनापति बनने की योग्यता रखते हैं। शारीरिक बल, पराक्रम, यत्नशीलता, बुद्धि, शूरता, धीरज, कुल, ज्ञान आदि सभी बातों में यहाँ इकट्ठे हुए सभी क्षत्रिय-राजा एक-दूसरे की समता कर सकते हैं। पर सवाल यह है कि इनमें से सेनापति किसे बनाया जाये? सभी एक साथ तो सेनापति बन नहीं सकते हैं। किसी एक को ही इस पद के लिये चुनना होगा और संभव है कि इससे लोग बुरा मानें। यह हमारे लिये हानिकर साबित होगा। इन साबों को ध्यान में रखते हुए मुझे तो यही सबसे अच्छा प्रतीत होता है कि आचार्य द्रोण को ही सेनापति बनाया जाये। वह सभी वीरों के आचार्य हैं, शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ हैं और क्षत्रियों में तो उनकी समता करने वाला कोई है नहीं। मेरी राय में तो अपने आचार्य को ही सेनापति के पद पर बिठाया जाये।" कर्ण की यह बात दुर्योधन ने मान ली। "आचार्य! जाति, कुल, शास्त्र-ज्ञान, वय, बुद्धि, वीरता, कुशलता आदि सभी बातों में आप सबसे श्रेष्ठ हैं। आप ही अब इस सेना का सेनापतित्व स्वीकार करें। हमारी सेना का यदि आप संचालन करेंगे तो यह निश्चित है कि हम युधिष्ठिर को अवश्य जीत लेंगे।" यह कहकर दुर्योधन ने सभी क्षत्रिय वीरों के सामने द्रोणाचार्य से सेनापतित्व स्वीकार करने की विनती की। एकत्र राजाओं ने यह सुन सिंहनाद करके दुर्योधन को प्रसन्न किया। शास्त्रोक्त रीति से द्रोणाचार्य का सेनापति-पद पर अभिषेक हुआ। उस समय ऐसा जय-जयकार हुआ, मानो आकाश विदीर्ण हो जायेगा। बंदीलोगों के स्तुति-गान और जय-घोष को सुनकर कौरव तो ऐसे उत्साह में आ गये कि पूछो मत। उन्हें यह भ्रम होने लगा मानो उन्होंने पांडवों पर विजय ही पा ली हो। आचार्य द्रोण ने युद्ध के लिये कौरव सेना को शकट-व्यूह में रचा। कर्ण के रथ को उसी दिन पहले-पहल युद्ध के मैदान में इधर-उधर चलते देख कौरवों-सेना के वीरों में एक नया ही जोश और आनन्द दौड़ गया। कौरवों की सेना के सिपाही आपस में बातें करने लगे- "पितामह तो अर्जुन को मारना नहीं चाहते थे। अनमने भाव से युद्ध कर रहे थे; परन्तु कर्ण ऐसा नहीं करेंगे। अब तो पांडवों का नाश होकर ही रहेगा।" द्रोणाचार्य ने पांच दिन तक कौरवों की सेना का संचालन करते हुए घोर युद्ध किया। यद्यपि अवस्था में वह बूढ़े थे, फिर भी जवानों को लजाने वाली फुर्ती के साथ युद्ध के मैदान में एक छोर से दूसरे छोर तक चक्कर काटते रहे और पागलों के-से जोश के साथ युद्ध करते रहे। उनके भीषण आक्रमण के आगे पांडवों की सेना उसी तरह तितर-बितर हो जाती थी, जैसे आंधी चलने पर मेघ-राशि। सात्यकि, भीम, अर्जुन, धृष्टद्युम्न, अभिमन्यु, द्रुपद, काशिराज आदि सुविख्यात वीरों के विरुद्ध अकेले द्रोणाचार्य भिड़ जाते और एक-एक को खदेड़ देते। पांचों दिन उनके हाथों पांडवों की सेना बहुत ही सताई गई। आचार्य द्रोण ने पांडव-सेना की नाक में दम कर दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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