महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
100.उत्तंक मुनि
पांडवों से विदा होकर श्रीकृष्ण द्वारका लौट रहे थे। रास्ते में उत्तंक नाम के ब्राह्मणों में उत्तम एक मुनि से उनकी भेंट हुई। उनको देखते ही श्रीकृष्ण ने अपना रथ खड़ा किया और उनको प्रणाम किया। मुनि उत्तंक ने वन्दना करके श्रीकृष्ण से पूछा- "माधव! हस्तिनापुर में सब कुशल से तो हैं? पांडवों और कौरवों में स्नेह-भाव बना रहता है न?" तपस्वी उत्तंक संसार की घटनाओं से बिलकुल बेखबर थे। उन्हें इतना भी पता न था कि इन्हीं दिनों दोनों में घोर संग्राम हुआ और उसमें कौरवों का विनाश हो गया। श्रीकृष्ण को ब्राह्मण मुनि का यह प्रश्न पहेली-सा लगा। क्षण-भर के लिये उन्हें जवाब न सूझा। थोड़ी देर के बाद उन्होंने युद्ध का सारा हाल बताया और कहा- "द्विजवर, कौरवों और पांडवों में घोर युद्ध हुआ। मैंने अपनी तरफ से शांति-स्थापन की कोई चेष्टा उठा न रखी। परन्तु कौरव कुछ मानते ही न थे। सब-के-सब युद्ध में मारे गये। भावी को कौन टाल सकता है?" यह हाल सुनकर उत्तंक को क्रोध हो आया। उनकी आंखें लाल हो उठीं और होंठ फड़कने लगे। वह बोले," वासुदेव! तुम्हारे देखते-देखते यह घोर अन्याय हुआ? तुमने कौरवों की रक्षा क्यों नहीं की? तुम चाहते तो उनको बचा सकते थे। तुम्हारे छल-कपट के कारण ही उनका नाश हुआ होगा। तुम्हीं उनके नाश का कारण बने होगे। मैं तुम्हें अभी शाप देता हूँ।" उत्तंक मुनि की बात सुनकर श्रीकृष्ण हंसते हुए बोले- "महर्षि शांत होइये। आप तो बड़े तपस्वी हैं। क्रोध के कारण तपस्या का फल क्यों गंवाते हैं? पहले मेरी बात पूरी तरह सुन लीजिये तब फिर चाहे जो शाप दीजिये।" इसके बाद श्रीकृष्ण ने मुनि उत्तंक को ज्ञानचक्षु प्रदान करके अपना विश्वरूप दिखलाया और कहा- "संसार की रक्षा एवं धर्म के संस्थापन के लिये ही मैं तरह-तरह के जन्म लेता रहता हूँ। जिस समय जिस योनि में जन्म लेता हूँ उस-उस अवतार के धर्म का पालन करता हूँ। देवताओं में अवतरित होते समय देवताओं का-सा व्यवहार करता हूँ। यक्ष बना तो यक्ष का-सा और राक्षस बना तो राक्षसों का-सा व्यवहार करता हूँ। इसी प्रकार मनुष्य या पशु का जन्म लेने पर मनुष्य या पशु का-सा आचरण करता हूँ। जिस समय जिस ढंग से धर्म-स्थापन का उद्देश्य पूरा हो सके उस समय उसी रीति से काम लिया करता हूँ और अपना उद्देश्य सिद्ध कर लेता हूँ। कौरव लोग विवेक खो चुके थे। राजसत्त के मद में आकर उन्होंने मेरी कोई बात नहीं सुनी। मैंने उनसे विनती की, डराया-धमकाया भी और अपना विश्वरूप भी उन्हें दिखलाया। किन्तु मेरे सारे प्रयत्न विफल हुए। अधर्म का भूत उन पर सवार था। इस कारण वे अपना हठ नहीं छोड़ते थे। युद्ध की आग में वे स्वयं ही कूदे और नष्ट हुए। अतएव द्विज-श्रेष्ठ! इस बारे में मुझ पर क्रोध करने का कोई कारण नहीं है।" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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