महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
1. देवव्रत
"सुन्दरी, तुम जो कोई भी हो, मेरा प्रेम स्वीकार करो और मेरी पत्नी बन जाओ! मेरा राज्य, मेरा धन, यहाँ तक कि मेरे प्राण भी आज से तुम्हारे अर्पण हैं।" प्रेम-विह्वल राजा ने उस देवी सुन्दरी से याचना की। देवी गंगा एक सुन्दर युवती का रूप धारण किये नदी के तट पर खड़ी थीं, उनके सौन्दर्य और नवयौवन ने राजा शान्तनु को मोह लिया था। स्मित-वदना गंगा बोलीं-" राजन आपकी पत्नी होना मुझे स्वीकार है, पर इससे पहले आपको मेरी शर्तें माननी होंगी। क्या आप मानेंगे?" राजा ने कहा- "अवश्य!" गंगा बोली- "मुझसे कोई यह न पूछ सकेगा कि मैं कौन हूँ और किस कुल की हूँ? मैं कुछ भी करूँ-अच्छा या बुरा, मुझे कोई न रोके। मेरी किसी भी बात पर कोई मुझ पर नाराज न हो और न कोई मुझे डाँटे-डपटे। मेरी ये शर्तें हैं इनमें से एक भी तोड़े जाने पर मैं उसी क्षण आपको छोड़कर चली जाऊँगी। स्वीकार है आपको?" राजा शान्तनु ने गंगा की सारी शर्तें मान ली और वचन दिया कि वह उनका पूर्ण रूप से पालन करेंगे। गंगा शान्तनु के भवन की शोभा बढ़ाने लगीं। उनके शील, स्वभाव, नम्रता और अचंचल प्रेम को देखकर राजा शान्तनु मुग्ध हो गये। अज्ञात सुन्दरी के इस व्यवहार से राजा शान्तनु चकित रह जाते। उनके आश्चर्य और क्षोभ का पारावार न रहता। सोचते, यह स्मित वदन और मृदुल गात और यह पैशाचिक व्यवहार! यह तरुणी कौन है? कहाँ की है? इस तरह के कई विचार उनके मन मे उठते; पर वचन दे चुके थे, इस कारण मन मसोसकर रह जाते। सूर्य के समान तेजस्वी सात बच्चों को गंगा में इसी भाँति नदी की धारा में बहा दिया। आठवाँ बच्चा पैदा हुआ। गंगा इसे भी लेकर नदी की तरफ जाने लगीं तो शान्तनु से न रहा गया। बोले- "ठहरो, बताओ कि यह घोर पाप करने पर क्यों तुली हुई हो? माँ होकर अपने नादान बच्चों को अकारण ही क्यों मार दिया करती हो? यह घृणित व्यवहार तुम्हें शोभा नहीं देता।" राजा की बात सुनकर गंगा मन-ही-मन मुस्कराईं, पर क्रोध का अभिनय करती हुई बोलीं- "राजन! क्या आप अपना वचन भूल गये? मालूम होता है कि आपको पुत्र से ही मतलब है, मुझसे नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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