महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
गणेश जी की शर्त
भगवान व्यास महर्षि पराशर के कीर्तिमान पुत्र थे। चारों वेदों को क्रमबद्ध करके उनका संकलन करने का श्रेय इन्हीं को है। महाभारत की पावन कथा भगवान व्यास की ही देन है। महाभारत की कथा व्यास जी के मानस-पटल पर अंकित हो चुकी थी, लेकिन उनको यह चिंता हुई कि इसे संसार को किस तरह प्रदान करें! यह सोचते-सोचते उन्होंने ब्रह्मा का ध्यान किया और ब्रह्मा प्रत्यक्ष हुए। व्यास जी ने उनके सामने सिर नवाया और हाथ जोड़कर निवेदन किया- "भगवन! एक महान ग्रन्थ की रचना मेरे मानस-पटल पर हुई है। अब चिंता इस बात की है कि इसे लिपिबद्ध कौन करे?" "तात! तुम गणेश जी को प्रसन्न करो। वे ही तुम्हारे ग्रन्थ को लिखने में समर्थ होंगे।" इतना कहकर ब्रह्मा जी अन्तर्धान हो गये। "हे गणेश, एक महान ग्रन्थ की रचना मेरे मस्तिष्क में हुई है। आपसे प्रार्थना है कि आप उसे लिपिबद्ध करने की कृपा करें।" "आपकी शर्त मुझे मंजूर है, पर विघ्नहरण, मेरी भी एक शर्त है। वह यह कि आप भी जब लिखें, तब हर श्लोक का अर्थ ठीक-ठीक समझ लें, तभी लिखें।" व्यास जी का यह कथन सुन गणेश जी हंस पडे। बोले- "तथास्तु!" और फिर व्यास जी तथा गणेश जी आमने-सामने बैठ गये। व्यास जी बोलते जाते थे और गणेश जी लिखते जाते थे। गणेश जी की गति तेज थी, इस कारण बीच-बीच में व्यास जी श्लोकों को जरा जटिल बना देते जिससे गणेश जी को समझने में कुछ देर लग जाती और उनकी लेखनी कुछ देर के लिये रुक जाती थी। इसी बीच व्यास जी कई और श्लोकों की मन-ही-मन रचना कर लेते थे। इस तरह महाभारत की कथा व्यास जी की ओजपूर्ण वाणी से प्रवाहित हुई और गणेश जी की अथक लेखनी ने उसे लिपिबद्ध किया। ग्रन्थ तैयार हो गया तो व्यास जी के मन में उसे सुरक्षित रखने तथा उसके प्रचार का प्रश्न उठा। उन दिनों छापेखाने तो थे नहीं। लोग ग्रन्थों को कण्ठस्थ कर लिया करते थे और इस प्रकार स्मरण शक्ति के सहारे उनको सुरक्षित रखते थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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