महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
106.धर्मपुत्र युधिष्ठिर
यादवों के सर्वनाश और श्रीकृष्ण के निर्वाण के शोकजनक समाचार हस्तिनापुर में पहुँचे और पाडवों के मन में सांसारिक जीवन के प्रति विराग छा गया और जीवित रहने की चाह उनमें न रह गई। अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित को राजगद्दी पर बिठाकर पांचो पांडवों ने द्रौपदी को साथ लेकर तीर्थ-यात्रा करने का निश्चय किया। वे हस्तिनापुर से रवाना होकर अनेक पवित्र-स्थानों के दर्शन करते हुए अंत में हिमालय की तलहटी में जा पहुँचे। उनके साथ-साथ एक कुत्ता भी चल रहा था। उन्होंने पहाड़ पर चढ़ना शुरू किया और चढ़ते-चढ़ते रास्ते में द्रौपदी, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव इन पांचों ने एक-एक करके शरीर त्याग दिये। पर सत्य-ब्रह्म का ज्ञान रखने वाले युधिष्ठिर तनिक भी विचलित न हुए। वह ऊपर चढ़ते ही गये। अब उनके पीछे-पीछे वह कुत्ता उनका साथी चल रहा था। असल में युधिष्ठिर का धर्म ही कुत्ते के रूप में उनके पीछे-पीछे चल रहा था। बहुत दूर जाने पर देवराज इन्द्र दैवीय रथ लेकर युधिष्ठिर के सामने प्रकट हुए और बोले- "युधिष्ठिर! द्रौपदी और तुम्हारे भाई स्वर्ग पहुँच चुके हैं। अकेले तुम्हीं रह गये; तुम अपने शरीर के साथ ही इस रथ पर सवार होकर स्वर्ग चलो। तुम्हें ले जाने के लिये ही मैं आया हूँ।" युधिष्ठिर रथ पर सवार होने लगे तो कुत्ता भी उनके साथ रथ पर चढ़ने लगा, पर इन्द्र ने उसे चढ़ने न दिया। बोले कि कुत्ते के लिये स्वर्ग में स्थान नहीं है। यह सुन युधिष्ठिर ने कहा कि यदि इस कुत्ते के लिये स्वर्ग में जगह नहीं तो फिर मुझे भी वहाँ जाने की इच्छा नहीं। इन्द्र के बहुत समझाने पर भी युधिष्ठिर कुत्ते को छोड़कर अकेले स्वर्ग जाने को राजी नहीं हुए अपने पुत्र की परीक्षा लेने के उद्देश्य से ही धर्मदेव कुत्ते के रूप में आये हुए थे। पुत्र के मन की दृढ़ता देखकर धर्मदेव बड़े प्रसन्न हुए और उनको आशीर्वाद देकर अन्तर्धान हो गये। युधिष्ठिर स्वर्ग मे पहुँचे तो पहले-पहल दुर्योधन से ही उनकी भेंट हुई। धर्मपुत्र ने देखा कि दुर्योधन सूर्य के तेज के समान जगमगाते हुए सुन्दर आसन पर विराजमान हैं और देवता लोग उसे घेरे खड़े हैं। यह देखकर युधिष्ठिर को क्रोध आया। उपस्थित देवताओं से बोले- "जहाँ लोभी और अदूरदर्शी दुर्योधन बस रहा हो वहाँ मैं रहना नहीं चाहता। इसने हम पर अनेक अत्याचार किये और दारुण दुःख पहुँचाया। इसी के कुकर्मों के फलस्वरूप हमें अपने बन्धु-बांधवों और मित्रों को मारना पड़ा। इसी की आज्ञा से हमारी सती-साध्वी पत्नी द्रौपदी भरी सभा में अपमानित हुई। मैं इसे देखना तक नहीं चाहता। मेरे और भाई कहाँ हैं? जहाँ वे होंगे, वहीं मैं भी जाना चाहता हूँ।" यह कहकर युधिष्ठिर वहाँ से लौट पड़े। यह देख सर्वज्ञ देवर्षि नारद युधिष्ठिर से बोले- "राजश्रेष्ठ, तुम्हारा कहना ठीक नहीं है। स्वर्ग में वैर-विरोध होता ही नहीं। वीर दुर्योधन के बारे में ऐसी बातें न करो। दुर्योधन ने क्षत्रियोचित धर्म का पालन करके यह पद प्राप्त किया है। जो बातें हो चुकी हैं उनका सदा स्मरण करते रहना और उन्हें मन में जमने देना ठीक नहीं। आपसी वैर-विरोध के लिये यहाँ कोई स्थान नहीं है। अब तो आपको दुर्योधन के साथ ही प्रेमपूर्वक रहना होगा। यहाँ सदेह पहुँचने के कारण ही आपके मन में ऐसे संकुचित विचार उठ रहे हैं। अब इन कुविचारों को मन से निकाल दो।" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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