महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
51.मामा विपक्ष में
मद्र देश के राजा शल्य, नकुल -सहदेव की मां माद्री के भाई थे। जब उन्हें ये खबर मिली कि पांडव उपप्लव्य के नगर में युद्ध की तैयारियां कर रहे हैं तो उन्होंने एक भारी सेना इकट्ठी की और उसे लेकर पांडवों की सहायता के लिये उपप्लव्य की ओर रवाना हो गये। राजा शल्य की सेना बहुत बड़ी थी। उपप्लव्य की ओर जाते हुए रास्ते में जहाँ कहीं भी शल्य विश्राम करने के लिये डेरा डालते, तो उनकी सेना का पड़ाव कोई "डेढ़ योजन[1]" तक लंबा फैल जाता था। जब दुर्योधन ने सुना कि राजा शल्य विशाल सेना लेकर पांडवों की सहायता के लिये जा रहे हैं तो उसने किसी प्रकार इस सेना को अपनी ओर कर लेने का तय कर लिया। अपने कुशल कर्मचारियों को उसने आज्ञा दी कि रास्ते में जहाँ कहीं भी राजा शल्य और उनकी सेना डेरा डाले, उसे हर तरह की सुविधा पहुँचाई जाये। इसके अनुसार रास्ते में जहाँ-तहाँ विशाल मंडप बनवाये गये। उन्हें खूब सजाया गया। जहाँ भी शल्य की सेना ठहरती वहाँ मद्रराज और उनकी सेना का शानदार स्वागत किया जाता। मद्रराज तथा उनकी सेना के लिये तरह-तरह की खाने-पीने की चीजें एकत्र की गईं। साथ ही उनके जी बहलाने का प्रबंध किया गया। रास्ते–भर इस प्रकार का सुंदर सत्कार प्रबंध देखकर शल्य बड़े प्रसन्न हुए। वह बड़ी भारी सेना लेकर जगह-जगह ठहरते और विश्राम करते हुए उपप्लव्य की ओर बढ़ते चले। मद्रराज की सेना इतनी विशाल थी कि उसके इधर-उधर चलने से धरती डोलती थी। रास्ते–भर शल्य यही सोचते रहे कि सत्कार के वह सब आयोजन मेरे भानजे युधिष्ठिर ने किये हैं। इससे युधिष्ठिर के प्रति उनके मन में बड़ा स्नेह हो गया। एक रोज शल्य की सेना का स्वागत-सत्कार तथा उनकी देख-रेख करने वाले कर्मचारियों से कहा कि हमारी सेना की और हमारी इतनी अच्छी तरह खातिरदारी करने वाले लोगों को मैं उचित पुरस्कार देना चाहता हूँ। कुंती -पुत्र युधिष्ठिर को मेरी तरफ से कहना कि वह इसके लिये बुरा न मानें और अपनी सम्मति दे दें। कर्मचारियों ने जाकर दुर्योधन को इस बात की खबर दी। वह तो इसी ताक में शल्य की सेना के साथ-साथ गुप्त रूप से चल ही रहा था। खबर पाकर बड़ा खुश हुआ और तुरंत मद्रराज के पास जाकर प्रणाम किया और स्वागत-सत्कार का हाल सुनाया। शल्य आश्चर्यचकित रह गये। हमारे स्वागत-सत्कार का प्रबंध दुर्योधन ने करवाया है, जानकर वह बड़े असमंजस में पड़े। यह जानते हुए भी कि हम उसके विपक्ष में हैं, दुर्योधन में इतनी उदारता का होना सचमुच बड़ी बात है। प्रसन्न होकर बोले- "राजन! तुम्हारा यह ऋण मैं कैसे चुकाउं?" दुर्योधन ने कहा- "अपनी सेना समेत आप मेरी सहायता करें और युद्ध शुरू होने पर मेरे पक्ष में रहकर पांडवों के विरुद्ध लड़ें। मैं आपसे यही प्रत्युपकार चाहता हूँ।" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ एक योजन क़रीब नौ मील का होता है।
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