महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
22.शकुनि का प्रवेश
राजसूय यज्ञ के समाप्त हो जाने पर आगन्तुक राजा तथा बड़े लोग युधिष्ठिर से विदा लेकर चलने लगे। जब भगवान व्यास विदा लेने आये तो धर्मात्मा युधिष्ठिर ने उनका विधिवत सत्कार किया। भगवान व्यास विदा मांगते हुए बोले- “कुन्तीपुत्र! साम्राज्याधीश का अलभ्य पद तुम्हें प्राप्त हो गया है। सारे कुरुवंश को तुमने गौरवान्वित कर दिया है। अब मुझे विदा दो।” अपने वंश के पितामह एवं आचार्य व्यास के चरण छूकर युधिष्ठिर ने पूछा- “आचार्य! मेरा मन कुशंकाओं से भरा हुआ है; आप ही उन्हें दूर कर सकते हैं। भविष्य-द्रष्टा ब्राह्मण कहते हैं कि अनिष्ट की सूचना देने वाले कुछ भयंकर उत्पात देखने में आये हैं। शिशुपाल के वध के साथ वे समाप्त हो जाते हैं या उनकी शुरुआत होती है?" युधिष्ठिर के प्रश्न का उत्तर देते हुए व्यास जी बोले- "वत्स! तुमको तेरह बरस तक और बड़े कष्ट झेलने होंगे। ये जो उत्पात देखने को आ रहे हैं वे क्षत्रिय-कुल के नाश की ही सूचना दे रहे हैं। शिशुपाल के वध के साथ इन कष्टों का अन्त नहीं हुआ। अभी तो और भी कितनी ही भारी-भारी दुर्घटनाएं होने को हैं। सैकड़ों राजा लोग मारे जायेंगे और इस भारी विपदा के तुम्हीं कारण बनोगे। तुम पांचों भाइयों और कौरवों के बीच वैर बढ़ेगा जिसके कारण एक भारी युद्ध छिड़ेगा। इस युद्ध में सारे क्षत्रिय कुल का सत्यानाश तक होने की संभावना है। किन्तु तुम इन बातों से उदास या चिन्तित न होना। धीरज धरना; क्योंकि यह कालचक्र का फेर है जिसे कोई टाल नहीं सकता। अपनी पांचों इन्द्रियों पर काबू रखना और सावधानी के साथ स्थिर रहते हुए राज करना। अच्छा, अब मुझे विदा दो।" यह कहकर भगवान व्यास विदा हुए। भगवान व्यास के चले जाने के बाद सम्राट युधिष्ठिर के मन में उदासी छा गई। उन्होंने भाइयों को सारा हाल कह सुनाया और बोले- "भाइयों! व्यास जी की बातों से मुझे जीवन से विराग हो रहा है। व्यासजी कह गये हैं कि मेरे कारण ही क्षत्रिय राजाओं का नाश होगा। यह जानने के बाद अब मेरे जीने से फायदा ही क्या है?" यह सुनकर अर्जुन बोला- "राजा होकर आपको शोभा नहीं देता कि इस तरह घबरा जायें। हर बात की छानबीन करके जिस समय जो उचित जान पड़े वही करना आपका कर्तव्य है।" युधिष्ठिर ने कहा- "भाइयों! परमात्मा हमारी रक्षा करे। युद्ध की संभावना ही मिटा देने के उद्देश्य से मैं यह शपथ लेता हूँ कि आज से तेरह बरस तक मैं अपने भाइयों या किसी और बन्धु को बुरा-भला नहीं कहूंगा। सदा अपने भाई-बन्धुओं की इच्छा पर ही चलूंगा। ऐसे कुछ नहीं करूंगा जिससे आपस में मनमुटाव होने का डर हो; क्योंकि मनमुटाव ही के कारण झगड़े होते हैं। क्रोध भी लड़ाई-झगड़ों का मूल कारण होता है। इसलिए मन से क्रोध को एक बारगी निकाल दूंगा। दुर्योधन और दूसरे कौरवों की बात कभी न टालूंगा। हमेशा उनकी इच्छानुसार काम करूँगा। जैसे व्यास जी ने सावधान किया है, क्रोध को कभी अपने ऊपर हावी न होने दूँगा।" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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