महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
95.अब विलाप करने से क्या लाभ
दुर्योधन के पास पहुँचकर अश्वत्थामा ने कहा- "महाराज दुर्योधन, आप अभी जीवित है क्या? देखिये, आपके लिये मैं ऐसा अच्छा समाचार लाया हूँ कि जिसे सुनकर आपका कलेजा जरूर ठंडा जो जायेगा और शांति से मर सकेंगे। जो कुछ हम लोगों ने किया है, उसे आप ध्यान से सुनें। सारे पांचाल खत्म कर दिये गये। पांडवों के भी सारे पुत्र मारे गये। पांडवों की सारी सेना का हमने सोते में ही सर्वनाश कर दिया। पांडवों के पक्ष में अब केवल सात ही व्यक्ति जीवित बच गये है। हमारे पक्ष मे कृपाचार्य, कृतवर्मा और मैं- तीन रह गये है।" यह सुनकर दुर्योधन बहुत प्रसन्न हुआ और बोला- "गुरु भाई, अश्वत्थामा आपने मेरी खातिर यह काम किया है जो न भीष्म पितामह से हुआ और न जिसे महावीर कर्ण ही कर सके। अब मैं शांति से मर सकूंगा।" इतना कहकर दुर्योधन ने अपने प्राण त्याग दिये। रात के समय अचानक छापा मारकर अश्वत्थामा और उसके साथियों ने सारी पांडव सेना को तहस-नहस कर दिया, यह जानकर युधिष्ठिर को भारी व्यथा हुई। वह भाइयों से बोले- "अभी-अभी हमें विजय प्राप्त हुई कि इतने में बुरी तरह इस प्रकार हार खा गये। जो परास्त हुए थे, अब तो उनकी ही जीत हो गई। महापराक्रमी कर्ण के भी आक्रमण से द्रौपदी के जो पुत्र बच गये थे, वे ही अब हमारी असावधानी के कारण कीड़ों की भाँति जल मरे। हमारी अवस्था ठीक उस व्यापारी की-सी हो गई जो बड़े महासागर को बड़ी सुगमता से पार करके अन्त में किसी छोटे-से नाले में डूबकर नष्ट हो जाता है। द्रौपदी की दयनीय अवस्था की क्या कहें कि जिसके पांचों बेटे एक साथ अचानक काल-कवलित हो गये!" वह शोक उसके लिये असह्य हो उठा। धर्मराज युधिष्ठिर के पास आकर वह कातर स्वर में पुकार उठी- "क्या इस पापी अश्वत्थामा से बदला लेने वाला हमारे यहाँ कोई नहीं रहा?" शोक-विह्वला द्रौपदी की हालत देखकर पांचो पांडव अश्वत्थामा की खोज में निकले। ढूंढ़ते-ढूंढ़ते आखिर उन्होंने गंगा-नदी के तट पर व्यासाश्रम में छिपे अश्वत्थामा का पता लगा ही दिया। पांडवों और श्रीकृष्ण को देखते ही अश्वत्थामा घबरा गया। दिव्यास्त्रों और उनके मंत्रो का तो अश्वत्थामा को ज्ञान था ही! उसने धीरे-से एक तिनका उठा लिया और अभिमंत्रित करके 'यह पांडवों के वंश का आमूल नाश कर दे' यह कहकर उस तिनके को हवा मे छोड़ दिया। मंत्र बल से वह तिनका अस्त्र बन गया और सीधा राजकुमारी उत्तरा की कोख में जा पहुँचा। पांडव-वंश का नामोनिशान तक इससे मिट गया होता, लेकिन श्रीकृष्ण के प्रताप व अनुग्रह से उत्तरा के गर्भ की रक्षा हो गई। समय पाकर उत्तरा के गर्भ का यही पिंड महाराज परीक्षित के रूप में उत्पन्न हुआ और पांडवों के वंश का एकमात्र चिह्न रह गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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