महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
24.बाजी
विदुर को आता देख महाराजा युधिष्ठिर उठे और उनका यथोचित स्वागत-सत्कार किया। किन्तु विदुर के चेहरे पर विषाद की रेखा देखकर चिन्तित भाव से पूछा- "क्यों चाचा जी, आपका चेहरा उतरा हुआ क्यों है? हस्तिनापुर में सब कुशल तो है न? महाराजा और सारे राजकुमार कुशल से तो हैं? नगर के लोगों का व्यवहार तो ठीक है?" विदुर आसन पर बैठते हुए शांति से बोले- "हस्तिनापुर में सब कुशलपूर्वक हैं। यहाँ तो सब आनन्दपूर्वक हैं न? हस्तिनापुर में खेल के लिए एक सभा-मंडप बनाया गया है, जो तुम्हारे मंडप के समान ही सुन्दर है। राजा धृतराष्ट्र की ओर से उसे देखने चलने के लिए मैं तुम लोगों को न्यौता देने आया हूँ। राजा धृतराष्ट्र की इच्छा है कि तुम सब भाइयों सहित वहां, आओ, उस मंडप को देखो और दो हाथ चौसर के भी खेल जाओ।" "चाचाजी! चौसर का खेल अच्छा नहीं है। इससे आपस में झगड़े पैदा होते हैं। समझदार लोग उसे पसन्द नहीं करते। लेकिन इस मामले में हम तो आप ही के आदेशानुसार चलनेवाले हैं। आपकी सलाह क्या है?" युधिष्ठिर ने पूछा। विदुर बोले- "यह तो किसी से छिपा नहीं कि चौसर का खेल सारे अनर्थ की जड़ होता है। मैंने तो भरसक कोशिश की कि इसे न होने दूं, किन्तु राजा ने आज्ञा दी कि तुम्हें खेल के लिए न्यौता दे ही आऊं। इसलिए आना पड़ा। अब तुम्हारी आज इच्छा हो करो।" भोग-विलास, जुआखोरी, शराब का व्यसन आदि ऐसे गड्ढे हैं जिनमें लोग जान-बूझकर गिरते हैं। इनसे होने वाली बुराइयों को भली-भाँति जानते हुए भी लोग आखिर इनके चक्कर में आ ही जाते हैं। महाभारत में इसका कई जगह जिक़्र आता है कि युधिष्ठिर को चौसर खेलने का व्यसन था। राजवंशों की रीति के अनुसार किसी को भी खेल के लिए बुलावा मिल जाने पर उसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता था। इसके अलावा व्यास की चेतावनी के कारण युधिष्ठिर को डर था कि कहीं खेल में न जाने को ही धृतराष्ट्र अपना अपमान न समझ लें और यही बात कहीं लड़ाई का कारण न बन जाये। इन्हीं सब विचारों से प्रेरित होकर समझदार युधिष्ठिर ने न्यौता स्वीकार कर लिया, यद्यपि विदुर ने उन्हें चेता दिया था। वह अपने परिवार के साथ हस्तिनापुर पहुँच गये। नगर के पास ही उनके तथा उनके परिवार के लिए एक सुन्दर विश्राम-गृह बना था। वहाँ ठहरकर उन्होंने आराम किया। अगले दिन सुबह नहा-धोकर वह सभा-मंडप में जा पहुँचे। कुशल समाचार के बाद शकुनि ने कहा- "युधिष्ठिर, खेल के लिए चौपड़ बिछा हुआ है। चलिए, दो हाथ खेल लें।" "राजन, यह खेल ठीक नहीं! बाजी जीत लेना साहस का काम नहीं। असित, देवल जैसे महान ऋषियों ने पांसे के खेल का एक स्वर से खण्डन किया है। लौकिक न्याय के ज्ञान में इन मुनियों की पहुँच कुछ कम नहीं थी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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