महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
24.बाजी
इन महात्माओं का कहना है कि जुआ खेलना धोखा देने के समान है। क्षत्रिय के लिए मैदान में लड़कर विजय पाना ही उचित मार्ग है। आप तो यह सब बातें जानते ही हैं।" युधिष्ठिर ने बड़ी शिष्टता के साथ उत्तर दिया। यद्यपि युधिष्ठिर ने उपरोक्त बातें सहज भाव से कही थीं लेकिन उनके मन में जरा-सा खेल लेने की भी इच्छा हो रही थी। शौकीन जो ठहरे! पर उन्हें यह भान भी था कि यह खेल बुरा है, इस कारण अपने को रोक रहे थे। उनके मन में जो तर्क-वितर्क हो रहा था उसको उन्होंने शकुनि से दलील करने के बहाने प्रकट कर दिया था। चतुर शकुनि यह बात ताड़ गया। वह बोला- "आप भी क्या कहते हैं, महाराज! धोखा क्या, युद्ध क्या! यह तो आदमी के अपने विचारों पर निर्भर करता होता है। स्पर्धा सबमें होती है। वेद पढ़े हुए पण्डितों में शास्त्रार्थ होते आपने नहीं देखा? जिसका ज्ञान अधिक हो वह कम पढ़े हुए को जीत लेता है। कभी किसी ने कहा कि शास्त्र में धोखेबाजी होती है? जिसे हथियार चलाने में निपुणता प्राप्त हो वह नौसिखिए को हरा देता है। क्या यह धर्म है? इसी तरह जो ताकतवर है वह कमज़ोर को पछाड़ देता है। आप क्या इसे भी धोखा कहेंगे? सयाने-सयाने की टक्कर कभी-कभी ही होती है। हर बात में जानकार या मंजा हुआ व्यक्ति कम जानकार को हरा दिया करता है। इसमें धोखेबाजी या न्याय का निर्णय कौन करे? पांसे के खेल की भी यही बात है। मंजा हुआ खिलाड़ी कच्चे खिलाड़ी को हरा देता है। यह भी कोई धोखे की बात है! हां, यह कहिए कि आपको हार जाने का डर लग रहा है; लेकिन इसमें धर्म की आड़ लेना उचित नहीं।" युधिष्ठिर कुछ गर्म होकर बोले, "राजन! ऐसी बात नहीं है। अगर मुझे खेलने को कहा गया है तो मैं न नहीं करूंगा। आप कहते हैं तो मैं तैयार हूँ। तो मेरे साथ खेलेगा कौन?" दुर्योधन तुरन्त बोल उठा- "मेरी जगह खेलेंगे तो मामा शकुनि किन्तु दांव लगाने के लिए जो धन-रत्नादि चाहिए वो मैं दूंगा।" युधिष्ठिर ने सोचा था कि दुर्योधन खेलेगा तो उसे तो मैं सहज ही हरा दूंगा। किन्तु मंजे हुए खिलाड़ी शकुनि के विरुद्ध खेलते उन्हें जरा हिचकिचाहट-सी मालूम हुई। बोले- "मेरी राय यह है कि किसी एक की जगह दूसरे को नहीं खेलना चाहिए। यह खेल के साधारण नियमों के विरुद्ध है।" "अच्छा तो अब दूसरा बहाना बना लिया।" शकुनि ने हंसते हुए कहा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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