महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
29.विपदा किस पर नहीं पड़ती ?
वनवास के दिनों में एक बार श्रीकृष्ण और बलराम अपने संगी-साथियों के साथ पांडवों से मिलने गये। पांडवों की दशा देखकर बलराम का जी भर आया। वह श्रीकृष्ण से बोले– "कृष्ण! कहते तो हैं कि भलाई का फल अच्छा बुरा होता है; परन्तु यहाँ तो मालूम ऐसा पड़ता है कि भलाई या बुराई का असर किसी के जीवन पर पड़ता ही नहीं। यदि ऐसा न होता तो यह कैसे हो सकता था कि दुर्योधन तो विशाल राज्य का स्वामी बन जाये और महात्मा युधिष्ठिर जंगल में वल्कल पहने वैरागियों का सा जीवन व्यतीत करें। दुष्ट दुर्योधन और उसके भाइयों की दिन-पर-दिन बढ़ती हो रही है, जबकि युधिष्ठिर राज्य, सुख और चैन से वंचित होकर वन में विपत्ति के दिन काट रहे हैं। इस उल्टे न्याय को देखकर परमात्मा पर से लोगों का विश्वास उठ जाये तो क्या आश्चर्य! धर्म और अधर्म का यह उल्टा नतीजा देखकर मुझे शास्त्रों की धर्म-प्रशंसा ढोंग मालूम पड़ती है। राज्य के लोभ में पड़े हुए धृतराष्ट्र मृत्यु के समय अपनी करतूतों का क्या समाधान देंगे? निर्दोष पांडवों की और यज्ञ की वेदी से उत्पन्न द्रौपदी को वनवास का यह महान दु:ख झेलते देखकर, और तो और, पत्थर तक पिघल जाते हैं और पृथ्वी भी शोकातुर हो रही है।"
वृष्णियों की सेना की सहायता से कौरवों का नाश करने में हम समर्थ हैं ही। और सेना की जरूरत भी क्या है? आप और श्रीकृष्ण अकेले ही यह काम कर सकते हैं। मेरा मन तो ऐसा कहता है कि कर्ण के सारे अस्त्र–शस्त्र चूर कर दूं और उसका सिर धड़ से अलग कर दूं। दुर्योधन और उसके साथियों को काम तमाम करके पांडवों का छिना हुआ राज्य अभिमन्यु को सौप दूं। वनवास बिताने की प्रतिज्ञा में तो पांडव ही न बंधे हुए है! वे उसे खुशी से पूरा करते रहें। चलिए, आज का हमारा यही कर्तव्य है।" श्रीकृष्ण, जो बलराम और सात्यिकी दोनों की बातों को बड़े ध्यान से सुन रहे थे, बोले– "आप दोनों ने जो कहा वह है तो ठीक, किंतु यह तो सोचना चाहिए कि पांडव दूसरों के जीते हुए राज्य को स्वीकार भी करेंगे? मेरा तो ख्याल है कि पांडव जिस राज्य को अपने बाहुबल से न जीतें उसे दूसरों से जितवाना पसंद न करेंगे।" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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