महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
7.विदुर
नगर के बाहर किसी वन में महर्षि माण्डव्य का आश्रम था। माण्डव स्थिर-चित्त, सत्यवादी एवं शास्त्रज्ञ थे। आश्रम में ही रहते और तपस्या में समय बिताते थे। एक दिन वह आश्रम के बाहर एक पेड़ के नीचे बैठे ध्यान कर रहे थे कि इतने में कुछ डाकू डाके का माल लिये उधर से आ निकले। राजा के सिपाही उनका पीछा कर रहे थे, इसलिए डाकू छिपने की जगह खोजते-खोजते उधर आये। आश्रम पर उनकी दृष्टि पड़ी तो सोचा कि इसमें छिपकर जान बचा लें। तेजी से आश्रम के भीतर घुस गये और डाके का माल एक कोने में गाड़ कर दूसरे कोने में छिप रहे। इतने में उनका पीछा करते हुए राजा के सैनिक भी वहाँ आ पहुँचे। ध्यानमग्न बैठे माण्डव्य मुनि को देखकर सिपाहियों के सरदार ने उनसे पूछा- "इस रास्ते से कोई डाकू आये हैं? आये हैं तो किस रास्ते गये हैं? जल्दी बताइये! वे राज्य में डाका डालकर आये हैं, हमें उनका पीछा करना है।" पर मुनि तो ध्यान में लीन थे। उन्होंने कुछ सुना ही नहीं, जवाब क्या देते? सरदार ने दुबारा डपटकर पूछा, फिर भी मुनि ने सुना नहीं। वह चुप रहे। इतने में कुछ सिपाहियों ने आश्रम के अन्दर तलाश करके देख लिया कि डाकू वहीं छिपे हुए हैं और डाके का माल भी आश्रम में ही गड़ा हुआ है। सैनिकों ने अपने सरदार को भी आश्रम में बुला लिया और डाकुओं को पकड़कर हथकड़ी पहना दी। सिपाहियों के सरदार ने मन में सोचा- "अच्छा तो यह बात है! अब समझ में आया कि ऋषि ने चुप्पी क्यों साध रखी थी।" उसने माण्डव्य ऋषि को डाकुओं का सरदार समझ लिया और सोचा कि उन्हीं की प्रेरणा से यह डाका डाला गया है। इस विचार से उसने अपने साथ के सिपाहियों को वहीं ऋषि की रखवाली के लिये छोड़ दिया और राजा के दरबार में जाकर सारी बातें कह सुनाईं। जब राजा ने सुना कि कोई ब्राह्मण डाकुओं का सरदार बना हुआ है और मुनि के वेश में लोगों को धोखा दे रहा है तो उसे बहुत क्रोध आया। बिना विचारे ही उसने आज्ञा दे दी कि दुरात्मा को तुरन्त सूली पर चढ़ा दो। क्रोध के मारे राजा को यह भी सुध न रही कि कुछ जाँच-पड़ताल तो कर लेता। निर्दोष माण्डव्य को सैनिकों ने तुरन्त सूली पर चढ़ा दिया और उनके आश्रम में जो डाके का माल पाया गया, उसे राजा के हवाले कर दिया। महर्षि माण्डव्य तपस्या में लीन थे और उसी लीनावस्था में ही सूली पर चढ़ा दिये गये। तपस्या के कारण सूली का प्रभाव उन पर न पड़ सका। बहुत दिनों तक वह जीवित रहे और सूली का दुःख सहते रहे। जब यह समाचार और तपस्वियों को मालूम हुआ तो वे लोग माण्डव्य के पास आ पहुँचे और उनकी सेवा करने लगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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