महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
50.पार्थ-सारथी
शांति-चर्चा के लिये हस्तिनापुर को दूत भेजने के बाद पांडव और उनके मित्र राजागण जोरों से युद्ध की तैयारी में जुट गये। श्रीकृष्ण के पास स्वयं अर्जुन पहुँचा। इधर दुर्योधन को भी इस बात की खबर मिल गई कि उत्तरा के विवाह से निवृत होकर श्रीकृष्ण द्वारका लौट गये हैं सो वह भी द्वारका को रवाना हो गया। संयोग की बात है कि जिस दिन अर्जुन द्वारका पहुँचा, ठीक उसी दिन दुर्योधन भी वहाँ पहुँचा। श्रीकृष्ण के भवन में भी दोनों एक साथ ही प्रविष्ट हुए। श्रीकृष्ण उस समय आराम कर रहे थे। अर्जुन और दुर्योधन दोनों ही उनके निकट संबंधी थे, इसलिये दोनों ही बेखटके शयनागार में चले गये। दुर्योधन आगे था, अर्जुन जरा पीछे। कमरे में प्रवेश करके दुर्योधन श्रीकृष्ण के सिरहाने एक उंचे आसन पर जा बैठा। अर्जुन पीछे था। वह श्रीकृष्ण के पैताने ही हाथ जोड़े खड़ा रहा। श्रीकृष्ण की नींद खुली तो सामने अर्जुन को खड़े देखा। उठकर उनका स्वागत किया और कुशल पूछी। बाद में घूमकर आसन पर बैठे दुर्योधन को देखा तो उसका भी स्वागत किया और कुशल-समाचार पूछे। उसके बाद दोनों के आने का कारण पूछा। दुर्योधन जल्दी से पहले बोला- "श्रीकृष्ण, ऐसा मालूम होता है कि हमारे और पांडवों के बीच जल्दी ही युद्ध छिड़ेगा। यदि ऐसा हुआ तो मैं आपसे प्रार्थना करने आया हूँ कि आप मेरी सहायता करें। इसमें शक नहीं कि पांडव और कौरव दोनों पर आपको एक-जैसा प्रेम है। यह भी ठीक है कि हम दोनों का आपसे संबंध है पर मैं आपकी सेवा में पहले पहुँचा हूँ। महाजनों ने यह नियम बना दिया है कि जो पहले आये, उसका काम पहले हो। आप महाजनों में श्रेष्ठ हैं। आप सबके पथ-प्रदर्शक हैं। अत: बड़ों की चलाई हुई प्रथा पर चलें और पहले मेरी सहायता करें।" यह सुनकर श्रीकृष्ण बोले- "राजन! यह हो सकता है कि आप पहले आये हों। पर मेरी निगाह तो कुंती -पुत्र अर्जुन पर ही पहले पड़ी। आप पहले पहुँचे जरूर, लेकिन मैंने तो पहले अर्जुन को ही देखा। निगाह में तो दोनों ही बराबर हैं। इसलिये कर्तव्य-भाव से मैं दोनों की ही समान रूप से सहायता करूंगा। पूर्वजों की चलाई हुई प्रथा यह है कि जो आयु में छोटा हो, उसी को पहले पुरस्कार देना चाहिए। अर्जुन आपसे आयु में छोटा है, इसलिये पहले उससे ही पूछता हूँ कि वह क्या चाहता है?" और अर्जुन की तरफ मुड़कर वह बोले- "पार्थ! सुनो! मेरे वंश के लोग नारायण कहलाते हैं। रण-कौशल में वे मुझसे कम नहीं हैं। वे बड़े साहसी और वीर भी हैं। उनकी एक भारी सेना इकट्ठी की जा सकती है। युद्ध के मैदान में तो उनके नजदीक कोई जा नहीं सकता। मेरी यह सेना एक तरफ होगी। दूसरी तरफ अकेला मैं रहूंगा। मेरी प्रतिज्ञा यह भी यह है कि युद्ध में मैं न हथियार उठाऊंगा, न लड़ूंगा। तुम भली-भाँति सोच लो, तब निर्णय करो। इन दो में से जो पसंद हो वह ले लो। बताओ, क्या चाहते हो तुम? मुझ अकेले नि:शस्त्र को या मेरे वंशवालों की वीर 'नारायणी सेना' को?" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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