महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
43.अनुचर का काम
वनवास की अवधि पूरी होने पर युधिष्ठिर अपने आश्रम के साथी ब्राह्मणों से दु:ख के साथ बोले- "ब्राह्मण देवताओ! धृतराष्ट्र के पुत्रों के जाल में फंसकर यद्यपि हम राज्य से वंचित हो चुके थे और हमारी हालत दीन दरिद्रों की सी हो चुकी थी फिर भी आप लोगों के सत्संग से इतने दिन वन में आनन्दपूर्वक बीते। अब तेरहवां बरस शुरू होने को है। प्रतिज्ञा के अनुसार हमें एक बरस तक कहीं छिपकर रहना होगा जिससे दुर्योधन के गुप्तचर हमारा पता न लगा सकें। इस कारण आपसे हमें बिछुड़ना पड़ रहा है। भगवान जाने कब हम अपना राज्य फिर प्राप्त करेंगे और शत्रुओं के भय से हमें मुक्त होकर आप लोगों के संत्सग में दिन बिताएंगे। आपसे प्रार्थना है कि हमें आशीष देकर विदा करें। हमें ऐसे लोगों से बचकर रहना होगा जो धृतराष्ट्र के पुत्रों के भय से या उनके अधीन प्रलोभन में आकर हमारा पता बता दें।" इतने दिनों वन में साथ रहने वाले ब्राह्मणों से ये बातें कहते हुए युधिष्ठिर का दिल भर आया। पुरोहित धौम्य युधिष्ठिर को सान्त्वना देते हुए बोले- "वत्स, इतने बड़े शास्त्रज्ञ होकर इस तरह दिल छोटा करना तुम्हें शोभा नहीं देता। धीरज धरो और आगे जो कुछ करना है उस पर ध्यान दो। विपत्ति तो सब पर पड़ती है। तुम जानते ही हो कि पुराने जमाने में स्वयं देवराज इन्द्र को दैत्यों के धोखे में आने के कारण राज्य-च्युत होना पड़ा था और निषद देश में ब्राह्मणों का भेष बनाकर वे रहे थें किन्तु देवराज छिपे-ही-छिपे ऐसे उपाय भी करते रहे जिससे वह आगे जाकर शत्रुओं की शक्ति तोड़ने में सफल हुए। तुम्हें भी ऐसा ही कुछ करना होगा। संसार की रक्षा के लिए स्वयं भगवान विष्णु को साधारण मनुष्यों की ही भाँति अदिति के गर्भ में रहना और जन्म लेना पड़ा था। अपना उद्देश्य साधने के लिए उन्होंने वे सब कष्ट झेले और अंत में सम्राट बलि से राज्य छीनकर मनुष्य मात्र की रक्षा की। भगवान नारायण को भी वृत्रासुर के वध के लिए इन्द्र के वज्र में प्रवेश करके छिपना पड़ा था। इसी प्रकार देवताओं का काम बनाने के लिए अग्नि को जल में छिपकर रहना पड़ा था। रोज हम देखते हैं कि भगवान सूर्य भी तो प्रतिदिन पृथ्वी के उदर में विलीन हो जाते हैं और फिर निकलते हैं। भगवान विष्णु ने महाबलि रावण का वध करने की खातिर महाराज दशरथ के यहाँ मनुष्य योनि में जन्म लेकर बरसों तक कितने ही भारी कष्ट उठाये थे। इसी तरह कितने ही महान लोगों को छिपकर रहना पड़ा है और उन्होंने अन्त में अपना उद्देश्य प्राप्त किया है। उन्हीं की भाँति कार्य करने पर तुम विजय प्राप्त करोगे और भाग्यवान बनोगे। किसी तरह की चिन्ता न करो।" युधिष्ठिर ने ब्राह्मणों की अनुमति लेकर उन्हें और अपने परिवार के और लोगों से कहा कि वे नगर को लौट जायें। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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