महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
79.अभिमन्यु
बारहवें दिन का युद्ध समाप्त हो जाने पर पांडव सेना अर्जुन की प्रशंसा करती हुई उत्साह के साथ अपने शिविर में लौट चली। उधर कौरव पक्ष के वीर लज्जा अनुभव करके चिंतित भाव से धीरे-धीरे अपने-अपने डेरों में जाने लगे। अगले दिन सवेरा हुआ तो दुर्योधन क्रोध में भरा हुआ आचार्य द्रोण के शिविर में गया और आचार्य को नमस्कार करके सैनिकों की उपस्थिति की ओर ध्यान न देते हुए गुस्से से बरस पड़ा। "आचार्य! युधिष्ठिर को नजदीक पाकर भी उन्हें पकड़ने में आप असमर्थ रहे। यदि सचमुच आपको हमारी रक्षा की चिंता होती तो कल जो कुछ हुआ, वह आप न होने देते। यदि आप युधिष्ठिर को जीवित ही पकड़ने का दृढ़ संकल्प कर लेते तो फिर किसमें इतनी शक्ति है जो आपकी इच्छा पूरी होने से रोक सके? आपने मुझे जो वचन दिया था न जाने क्यों अभी तक उसे आपने पूरा नहीं किया। आप लोग महात्मा हैं और महात्माओं के कार्य भी बड़े विलक्षण होते हैं।" दुर्योधन के इस प्रकार सबके सामने कहने पर आचार्य द्रोण को बड़ी चोट लगी। वह बोले- "दुर्योधन! अपनी सारी शक्ति लगाकर मैं तुम्हारे लिये ही लड़ रहा हूँ। क्षत्रिय होकर इस भाँति कुविचार करना तुम्हें शोभा नहीं देता। मैंने तो पहले ही तुम्हें बता दिया था कि हमारा उद्वेश्य तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक अर्जुन युधिष्ठिर के पास रहेगा और तुमको फिर से यह बताये देता हूँ कि अर्जुन को युधिष्ठिर से अलग हटाकर कहीं दूर ले जाये बिना तुम्हारा उद्वेश्य सिद्ध नहीं हो सकता। यद्यपि मैं जहाँ तक हो सकेगा, इसका प्रयत्न जारी ही रक्खूंगा।" आचार्य द्रोण को दुर्योधन पर क्रोध तो बहुत आया, उन्होंने अपने को शांत कर लिया। तेरहवें दिन भी संशप्तकों (त्रिगर्तों) ने अर्जुन को युद्ध के लिये ललकारा। अर्जुन भी चुनौती स्वीकार करके उनके साथ लड़ता हुआ दक्षिण दिशा की ओर चला। नियत स्थान पर पहुँचने पर अर्जुन और संशप्तकों के बीच घोर संग्राम छिड़ गया। अर्जुन के दक्षिण की ओर चले जाने के बाद द्रोणाचार्य ने कौरव-सेना की चक्रव्यूह में रचना की और युधिष्ठिर पर धावा बोल दिया। युधिष्ठिर की ओर से भीम, सात्यकि, चेकितान, धृष्टद्युम्न, कुन्तिभोज, उत्तमौजा, विराटराज, कैकेय वीर आदि और भी कितने ही सुविख्यात महारथियों ने द्रोणाचार्य के आक्रमण की बाढ़ को रोकने की जी-तोड़ कोशिश की। फिर भी द्रोण का वेग उनके रोके नहीं रुका। यह देख सभी महारथी चिंता में पड़ गये। सुभद्रा का पुत्र अभिमन्यु अभी बालक ही था। फिर भी अपनी रणकुशलता और शूरता के लिये वह इतना प्रसिद्ध हो चुका था कि लोग उसको कृष्ण एवं अर्जुन की समता करने वाला समझते थे।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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